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मंगल बदन प्रशन्न सदा, मुख बानकारी । घेक रदन गज बदन, जाहि सेवत नरनारी ॥ पितु शंकर मा गोर, ताहि कर लादु लद (41) यो । तीन लोक के काज, धारि वपु जग में पायौ । गवरीनंद नाम तुम, वेद चारि जसु गाईयो । दिजनीरथ ताको मजे, चर्ण कंवल चितु लाइयौ ॥१॥
चौपई संवतु सतरह शिवीसा, तिथि एकम तह मंघर वीसा । सूरज मिश्चक रासहिं पायौ, तब कनीन श्रानंद बटायौ ॥ गुरु दिनमौ मोको मति बाई, सुतो वेद भाषा प्रगटाई । श्रालमगीर राज तहँ कर हो, दुख दानिदु समहन को हरही ॥ दिजु तीरथ फिरि जाति मखाने, माज देऊ सम कोई जाने । गुजामाली गुरु है मेरा, कीवे दर परम पनेरा ।।
पिता निहालु मेरो कहिए, चार पदारथ निश्चै पईए ॥ ६ ॥ अन्त
आलमगीर राज सुखदाई, मूलचक्र मो कथा बनाई। दिजतीरथ यह कथा बखानी, जइसी मति तैसी कछु नानी ॥ कवि करनी निंदक महा, मनुज न माखे कोई ।
गोविंद चरचा हम करी, चंडीवर दियौ मोहि ॥ इति पद्मपुराणे, कार्तिक महात्म्ये कृष्ण सत्यो संवादे इकोनत्रिसउध्याय
लेखनकाल- १८३६ वैसु० २ रवि । खरतर कीर्ति विजें लि० प्रति पत्र ४७ पंक्ति १५। अक्षर ३२
[स्थान-जिनचारित्यसूरिसंग्रह] ( ४ ) गजउधर-रचयिता अजितसिंह (१८ वीं शताब्दी) आदि
अथ गज उधार प्रन्थ श्रीजी क्रित लिख्यते ।