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________________ (२१६) स्वेतांबरी पं. भगवान सागरेण, माहेसरी वशे वीसाणी सा । जसकरण पुत्र सुखराम वाचताफैः ॥ श्री जेशलमेर मध्ये ॥ रावलजी श्री प्रसैसिंघजी कुंधर श्री मूलराजजी राज्यात् । शुभं भवतुः कल्याण मस्तु लेखक पाठकयो चिरजीयात् ॥ श्री ॥ मूल प्रति जैसलमेर डुगरमी भक्ति भडार । प्रतिलिपि मादूल राजस्थानी रिहाल इन्स्टीट्य ट ] (७) शिव व्याह । पहा ३७३ १ या भुजनरेश महाराउ लषपति सं० १८१७ सावण सुदी ५ आदि एक रदन श्रानंदघर, दुखहर शिवमत देव । प्रांजलि लषपति 4 कृपा, निजरि करहु नितमेव ॥ १ ॥ शिवरानी जानी जगत, बरनत हो तुव ब्याह । सेबक लषपति के सदा, अविचल करि उछाह ॥ २ ॥ महिमानी माता तुम, बहानो बरबीर । भवा भवानी मारती, रक्षा कर लषधीर ॥ ३ ॥ भुव धरिनी करनी भई, शिव परिमी सुषदाय । हरिनी दुषकी हो सदा, पूजित पुरनर पाय ॥ ४ ॥ मेरे मन माही सदा, बसौ ईसुरी बास । सषपति सेवक दिगखपी प्रषिक्ष सफल करि पास ॥ ५ ॥ अंत इह प्रकार जग ईस जोग तजि भोग सुभीनो । नेम प्राडि छाडि वन माँभि नाँच नारी . कीन्ही । चंचल द्विगकरि चित्त चतुर सबरीको चाही । ब्रह्म श्रादि पुर संग प्राय उमया कौं ब्याही । बानन्द भयौ अंग अंग अति, भुवन तीन संतिति मरन । किरतार सदा लष धीर के सफल मनोरथ पुषकरन ||१||
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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