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________________ (१८६) संवत ठार से रवि वरष चेत तीज सित पक्ष । भर सुबोध चन्द्रका सरस देत ग्यान परतः ॥ ५॥ अथ प्रथम ऊ के नाम ऊ परमेस्वर मुक्ति मनि ग्यान पूर्म पहिचानि । समरिय बाचक अव्यय केवल रूप बषानि |॥६॥ अचल प्रीति प्रभु दीजिये तुम गुनगन की मोहि । इहि मार्ग अति चौंप करि मालम मन की तीहि ।। १०१६ ॥ इति श्रीनाम । दोहराकहु न पाये अर्थ जब श्राद बनते भाषि । कवि कुल के परबंध इह सही जानि हिय राषि ॥ १०२० ॥ इति श्री चहुबाण मयाराम मुत फकीरचन्द विरचितायां सुबोध चन्द्रकायां । प्रति-गुटकाकार । [ राजस्थान पुरातत्व मंदिर, जयपुर ] ( १ ) छंदमाला। रचयिता- के गवराई ( कैसवदास) श्रादि श्रथ छंदमाला लिख्यते। थनंगारि है पैल में संग नागे । दियै मुण्डमाला कहै गंगधारी ॥ मा कालकूटै लसै मीस चन्दै । ___ कहा एक हो ताहि त्रैलोक्य वंदे ॥ महादेव जाके न जाने प्रभावै । महादेव के देव को चित्त मावै ॥ . महानाग सो है सदा देहमाला । महा माययंती करौ 'छंदमाला' ॥ दोहामाषा कवि समुझे सबै सिगरे छंद मुमह । चंदन की माला की, सोमन केसवरा ॥
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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