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________________ ( १८२) भाल वाल ससि सुभग, प्रगट छवि मुगट सुपाई । शिव सप्त गुन सदन गोरि, हित जुत गुर ताई ॥ घरदैत सही पंछित करन, धरा कछ रिधि (सधि धरहु । कवि कॅ श्रर राउ लपधीर कै, गनपति निति मंगल करहु ॥ ४ ॥ अथ श्री गुज नगर वर्ननं ।। दोहा सहर सुथिर भुज है सदा, कछ धराउँ अरेस । पातिस्याह तिनिकौ प्रगट, निरषहु लखा नरेस ॥ ५ ॥ दानि माँनी देसपति, रगानी गुन गंमीर । बांनी बर पाँनी प्रबल, लषि जादौ लषधीर ॥ ६ ॥ दोपै हेमल नंदये, रग जस अमत रूप । भनवा ज्यो मनि फरत, भुज मह लपपति भूप ।। ७ ॥ अवनी रा कन्न उधारकों, हिय में हम गीर । रच्या विधाता श्राप रूचि, बिय बिधि लषपति वीर ॥ ८ ॥ किय लषपनि कुअरेम को हित करि हुकमहजूर । पारमात पारसी, प्रगट हु भाषा पूर ॥ ६ ॥ अब यूरज सौ बीनती ॥ पौरत वर दाता बिमल, सूरज होहु सहाय । पारसात है पारगी, न भाषा जु बनाय ॥१०॥ अन्त सूरज सशि सायर सुथिर, धुग्रजोले निरधार । तो खौं श्री लपपत्ति को, पारसार सौं प्यार ॥५३॥ इति श्री पारसात नाममाला भट्टारक श्री कुँअर कुशल सूरि कृत सम्पूर्णा । सम्वत १८५७ ।। ना श्रासूचिद १० सोमे संपूर्णा कृता ।। सकल पंडित शिरोमणी पं० कल्याणकुशल जो तशिष्य पंडितोत्तम पं० विनीत कुशलजी वशिष्य पं० ग्यान कुशलजी तत्शिष्य पं० किर्ति कुशलजी लिषिताश्व भर्थे श्री रस्तु ।
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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