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________________ ( १५३) पूरब दिसि जहाँ वठे सुरसरी, ता उपकठि वसति सिवपुरी । जहाँ नरनारी सुदर रूप, राजै शानदेव तहां राव, रविले अधिक प्रताप दिखाय । जाकै मान तेज उरि जगै, तातै दूर मुटता मग ॥ अंत मंगल प्रकत मही ज्यौ राजै, युधिबा बुधिमतीत्यों छाजै । धन बुद्धिबल मंगल चतुराइ, दीनी ते दस ठकुराइ ॥४०॥ नई कथा पर नाम गुन, पुनि नर नारी समाच । लछीराम कलपित करै, रोझो कविराज ||४|| बुधिवल सुने बुधि अतिबाटै, मनतै सकल मूढता । सोरहसै विक्रम को साको, तापर वरस इक्यासी ताकौ ॥४९॥ तीजै महावदि पोषी मई, बुधिबल नाउ कल्पना नई । लछीराम कहि कथा बनाई, तामें गति रस निकी छाई ॥५०॥ स्वारथ परमारथ युगल, दीने सब निज नाइ । नूकपरी जा और , कविजन लेहु बनाइ ॥५१॥ इति श्री बुधियल अंत प्रभाव वेदांत खंड समाप्त ।। अष्टम प्रभाव समाप्त ।। पत्र २१६ से २३२ पं० ३०अक्षर २६ गुट कार । ज्ञानमाला। आदि प्रथम पत्र नहीं करम है मो श्राप किरपा करकै इन धेनु करम के भेद मिन मिन मो से कहो, जोइ मेरे मनका संदेह निवारण करो। राजन यह प्रसन सुनाकर श्रीशुकदेवजी बहुत प्रसन्न भये और श्राज्ञा कीनि कि हे राजा तेरे प्रसंग में संसारी मनुस कू नहलाये है। और जो यह संदेह तरे मन में उपजी है सोही अरजुन के मन में उत्पन्न मया था, सोभाकिसनजी ने वाक प्रसंग में कहा
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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