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(४२) पंचमंगल । रचयिका- रूपचन्द । पादि
प्रणाम पंच परम गुरु गुरुजन सासनम् । सकल सिद्धि दातार तौ विघ्न विनासनम् ।। सारद बरु गुरु गौतम, सुमति प्रकासनम् ।
मंगल करहु चौ संघ, पाव प्रणासनम् ।। पापे प्रणासन गुणहि गुरुया, दोष अष्टादश रह्यौ । धरिध्यान कर्म विनास केवल, शान अविचल जिहि लखौ ॥ प्रभु पंच कल्याणिक विराजित, सकल मर नर ध्याहिये ।
त्रिलोय नाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल गाइये ॥ अन्त
पमित अष्टो सिद्ध नव निध, मन प्रतीत ज्यू मानिये । भ्रम भाव अटै सकल मन के, जिन स्वरूप जे जानिये ॥ पुनि हरै पातक टलै विधन सु, होइ मंगल नित नये । भनै रूपचंद त्रिलोक पति जिन, देव चौ संघ जये।
इति पंच मंगल रूपचंद कृत समाप्त । लेखन काल - मिति ज्येष्ठ सुदि संवत् १८२४ प्रति - गुटकाकार । पत्र-५० से ६०। पंक्ति-१२ । अक्षर- १४ साइज
[ अभय जैन अन्धालय] (४३) बारह व्रत टीप ( गय) । रचयिता-उद्योत सागर । आदि
सदा सिद्ध भगवान के, चरण नमुं चित लाय । श्रुति देवी पुनि समरिये, पूजू साके पाय ॥१॥ करूं सुगम भाषा सही, चारह प्रत विस्तार । भिन मिन मेद र करी, मन्य नीव उपकार ॥२॥