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________________ अन्त (१४८ ★ दोहरा बन तरुवर फल खातु फिर, पय पीवतौ सु छंद । पदंसणद्री प्रेरियो, महु दुख सहइ गयंद ॥ १ ॥ आदि चाल - बहु दुख सहै गयंदो, तस हो गई मति मंदो । कागद के कुंजर काजै, पडि खाडे सक्यौ न भाजै । मिसिहीप घणी दुख भूखो कवि कौन कहै त दुखो । रखवाला व लग्यो जायो. वेसासी दाग धरि श्रारयो । बंध्यो पगि सकुल धाले सो कियों ससके चालें । कत्रि गेल्हु सुतनु गुख श्रामु, जगप्रगट टुकुरसी नाएं । कहि वेल मदसगुण गाया, चित चतुद मनुष्य समृकाया ॥ मन मरिख संक उपाई, तिहि तखै चित्तिन सुहाई । पसारो, इंह एक नहि जंपौ ध वत पनसै वचन है साद 1 पंचास, तेरिस सुद कतिग मासे । जिहि मनु इद्रि बसि कीया, तिहि हरत परत जग जीया ॥ ( इति पंच इंद्रिय वेलि संमाप्त प्रति- गुटकाकार साईज ५||२६|| पत्रक १७६ से ७८ । पंक्ति १६, । श्रक्षर २२ । ( ४१ ) पंचगति वेली - हरदव कीर्ति [ श्रथय जैन ग्रंथालय ] दोहरा - रिषभ जिनेसर चादि करि, वर्द्धमानजि (न) श्रत । नमस्कार करि सरस्वती, वदयौ वेली भंत ॥ १ ॥
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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