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अन्त
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दोहरा
बन तरुवर फल खातु फिर, पय पीवतौ सु छंद । पदंसणद्री प्रेरियो, महु दुख सहइ गयंद ॥ १ ॥
आदि
चाल - बहु दुख सहै गयंदो, तस हो गई मति मंदो । कागद के कुंजर काजै, पडि खाडे सक्यौ न भाजै । मिसिहीप घणी दुख भूखो कवि कौन कहै त दुखो । रखवाला व लग्यो जायो. वेसासी दाग धरि श्रारयो । बंध्यो पगि सकुल धाले सो कियों ससके चालें ।
कत्रि गेल्हु सुतनु गुख श्रामु, जगप्रगट टुकुरसी नाएं । कहि वेल मदसगुण गाया, चित चतुद मनुष्य समृकाया ॥ मन मरिख संक उपाई, तिहि तखै चित्तिन सुहाई । पसारो, इंह एक
नहि जंपौ ध वत पनसै
वचन है साद 1
पंचास, तेरिस सुद कतिग मासे ।
जिहि मनु इद्रि बसि कीया, तिहि हरत परत जग जीया ॥
(
इति पंच इंद्रिय वेलि संमाप्त
प्रति- गुटकाकार साईज ५||२६|| पत्रक १७६ से ७८ ।
पंक्ति १६, । श्रक्षर २२ ।
( ४१ ) पंचगति वेली - हरदव कीर्ति
[ श्रथय जैन ग्रंथालय ]
दोहरा -
रिषभ जिनेसर चादि करि, वर्द्धमानजि (न) श्रत ।
नमस्कार
करि सरस्वती, वदयौ वेली भंत ॥ १ ॥