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________________ (१३३ ) दिट श्रासन थिति चास जासु उज्जल जग कीरति । प्रातीहा गज अष्ट नष्ट गत रोग न पीरति ।। घजरामर एकल छल छग अनुपम धनमित शिव करन् । इंद्रादिक बंदित चरण युग जय जय जिन श्रशरन शरन ॥ १॥ दोहा शान रमा धन श्लेष हैं, वंदित परमानद । अजर अझै परमातमा, नमो देव जिनचंद ॥ २ ॥ कहि ही संत प्रमोद घर, यह ज्ञानार्णव ग्रन्थ । जग विया निग्रह कर, कोविद शिव को पंथ ॥ १३ ॥ पूर्वाचार्य स्तुनि में समतभद्र, देवनंदी, जिनमेन, प्रकारक का निर्देश है। शान समुद्र अपार वय, मान नौका गति मंद । 4 2 ( सं १ ) वट नीको मिल्यो, घाचारज शुभचद ॥ ४७ ॥ ताके वचन विचारि के. कीने भाषा छंद । श्रातम लाभ निहारि भनि, प्राचारज लखमीचंद ॥ ४८ ॥ स.गुरू कृपा ते मे सुगम, पायो श्रागम पंथ ।। भविक बांध के काने. भाषा कीनी अथ || ४६ ॥ कुदलिया गन परतर मब जग विदित, शुभ भापा जिनचंद । लधि ग पाल सगरू, गत जिन धर्म धनद ॥ रत जिनधर्म थनंद, नद मम बम विचारी । = शिष तावे. मए, विष चित्त शुभ जिन गुन धारी ॥ कुराल नारायणदास तास लघु मात लखमन । जानि भविक सुख न विदित्र जग सब खरतर गन ॥ ५० ॥ बदलिपा गोत वर करत वजीरी नित, स्वामि काम सावधान हियो परिचाऊ है । ताराचंद नाम वस्तपालजू को नंद हिरदै मैं जाके जिनवानी ठहराउ है ॥
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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