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आदि
अंत
तिनको अनुमति पाय के sears पनी ताए ।
भक्त जन के अर्थ एह, करू निवेदन जाए ॥ ८ ॥ लिखतं लछमनदास अंबाले मध्ये मोतीलाल की चोवीसी
( १२ ) चौवीस जिन सवैया आदि । रचयिता - उदय |
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प्रथम ही तीर्थंकर रूप परमेश्वर को वंश ही इक्ष्वाकु अवतंश ही कहा है। वृषभ लांछन पग धोरी रहे धीग जाकै, धन्य मम देव ताकी कुधि आयो है ॥ राजऋद्धि र करि भिताचार भेष भये, समता संतोष ज्ञान केवल ही पाय हैं । नामि रायजू को नंद नमैं सुर नर वंदे, उदय कहत गिरि शत्रु जे महायो है ॥ १ ॥
फर संसार मां है श्रायौ तब कीयो स्पर्श, रसना के रस मांहि क्यो दिन गत ही । प्राण के रस माहि श्रायौ तालू थी सुवास, चक्षही के रस रूप देख बहु भांति ही । श्रोत के रस माही श्री गज हुवो मन, विषय नेवी या सब कहिला ही । उदय कहत अब बार बार कहाँ तोहि, हार मोहि तारक तू त्रिभुवन तात ही ॥ लेखनकाल- १६ वी शताब्दी
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[ बीकानेर बृहद ज्ञानभंडार । ] वि० भक्ति, नीति, उपदेशादि सम्बन्धी अन्य २०० फुटकर सर्वये कवि के रचित इस प्रति में साथ ही हैं ।
( १३ ) चोवीस स्तवन । रचयिता - राज ।
श्रादि
पद-राग वेलाउल
श्राज मकल मंगल मिले, श्राज परम श्रानदा ।
परम पुनीत जनम भेयो, पेखे प्रथम जिनदा ॥ १ ॥ श्र० ॥
पटे पडल ज्ञान के जागी यांति उदारा |
अंतर जामी में लख्यौ,
तू करता सुख संग को, और ठौर रावे न ते,
श्रातम श्रविकारा || २ || श्रा० ॥
वंचित फल दाता ।
जे तुम सग राता ॥ ३ ॥ श्रा० ॥