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कवि सिवचन्द जू पच्चीस का बनाई यह बाघ के प्रताप को अकौरति कहानसी ॥ २५ ॥
होहा यह प्रताप पचीसका, पटै गुनै चित लाइ
कवित दोष सब गुन सहित, समझै सवै बनाय ।। १ ॥ इति श्री संवक्र सिवचन्दजी कृत किसनगढरा मोहणोत प्रताप सिंघरी पचीसी सपूर्ण
मं० १८५७ ना वर्षे पोष माम शुक्ल पक्षं २ द्वितीया तिथी बुधवासरे इन्ध पुस्तक संपूर्णो भवता ।
पंडित श्री १०८ श्रीज्ञानकुशलजी तच्छिष्य ५० कीर्तिकुशलन लिखितात्मार्थे । प्रति परिचय-पत्र ६ साइज १० x ४।।। प्रतिष्पृ० पं० १३, प्रति पं अ० ४०
[गजस्थान पुरातत्व मन्दिर, जयपुर ] ( २२ ) राजुल पच्चीसी- विनोदीलाल श्रादि
प्रथमहि हो समरू परिहतदेव सारद निज हिय धरी । बलि जीव वे बंदो वे अपने गुरु के पाय, राजुमतीगुन गाइस। वलि गाउ मेरी गजुल पचीसी नेम जब व्याहन चले दखि पसु जिय दया ऊपजी, धारि सब वन को हली । गिग्ना गट पर जाय के प्रभु, जैन दीक्षा श्रादरी जन्म तब कर जोरि यहु, वाने सो बीनती करी ।।
भवियन हो, मवियन हो जो यह पटै त्रिकाल अरु सुर धरियह गावही ।
जो नर सुद्धि समालि, द्वादश मावन मावाह ।। यह भावना राशल पचीसी जो कोई जन भाव हि । सो इन्द्र चन्द्र फनीन्द्र पद धरि, अन्त सिवपुर जावहि ।। भानन्द चन्द विनोद गायौ, धनत सब जन ग्रहन । राजन्न श्रीपति नेम सब, संग को रक्षा करो ।।