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________________ भनेक तीरथ पल कटन काया के मन, मन बच म करि ध्यान जाप करना । सवाया उत्रीस राजा सम रघुबीर जू के, जपति जगन कवि जाति पडु करना ॥ ३३ ॥ इनि राम सीता द्वात्रिंशिका ममाता" लेखनकाल-१८वीं शताब्दी। प्रति-प्रति नं०१-पत्र-३, पंक्ति १७, अक्षर-५०, साहस १०४४|| प्रति नं० २-पत्र-३, पंक्कि १८, अक्षर-५०, माइज १०x१|| ___इम प्रति में लेखक ने प्रारम्भ मे 'अथ रामचन्द्रजीरा मबइया लिन्यते लिम्बा है और अन्त में, इनि श्री जगन बनीमी संपूर्ण" लिखा है। [ स्थान-अभय जैन पुस्तकालय ] । १५ ) समकित बतीसी । पन्ध ३३ । रचयिता-कंवरपाल । श्रादि केवल रूम अनूप बातम कृप, संसार अनादि अझर । परगन रचर तत्र वलित फल, मुचित मान उनमान न बूझर ।। अब इलाज जिनराज वचन मह, धरम जिहाज तरया कुं तूझ । कंवरपाल सुध दिष्टि प्राणा, काय मुदिद करुणाकर मुझद ॥ हुनी उछार सुजस बातम सुनि, उत्तम जौके पदम रस मिन्ने । जिम सरहि विण चरहि दूध हुइ, ग्याता तेम वचन गुण गिन्ने । नित्र बुद्धि सार विचार अध्यातम, कबित पत्तींसी मेट कवि किन्न । कवरपाल अमरेम तनोत्तम, अति हित चित यादर कर लिन्नै ॥ ३३ ॥ इति कंवरपाल बत्तोमी समाप्त । प्रति-गुटका कार ! पत्र २०२ मे २०५। [अभय जैन ग्रंथालय] (१६) हित शिक्षा प्रात्रिशिका । पद्य-३३ । रचयिता-क्षमा कल्याणा । प्रावि मंगलाचरण रूप ऋषभ जिनस्तुति सवैया ३२,
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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