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(१० ) समता शतक । पद्य-१०५ । रचयिता-यशोविजय । आदि
समना गंगा मगनता, उदासीनता जात । चिदानंद जयवंत हो, केवल मानु प्रभात ॥ १ ॥
बहुत ग्रन्थ नय देखि के, महा पुरुष कृत सार । विजयसिंह सूरि कियौ, समताशत को हार ॥१०३॥ भावन जाकू तत्व मन, हो समता रस लीन । ज्य प्रगटे तुझ सहज सुख, अनुमव गम्य अहीन ॥१०४।। कवि यशविजय म सीखए, आप आपकू देत ।
साम्य शतक उद्धार करि, हेमविजय मुनि हेत ॥१०॥ प्रति-प्रतिलिपि
[अभय जैन ग्रंथालय