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________________ चौथा भव-धनसेठ "जंतोर्वजाहतस्यापि मृत्यु त्रुटितायुपः ।" [प्राणी वनकी चोट खानेपर यदि उसका आयुकर्मयाकी होता है तो वह नहीं मरता।] अत्यन्त अभागी और माताको दुःख पहुँचानेवाली वह दूसरोंके घर हलके काम करके अपना जीवन विताने लगी। एक दिन उसने किसी धनिकके लड़केके हाथमें लड्डू देखा । वह भी अपनी माँसे लड्डू माँगने लगी। उसकी माता गुस्सेसे दाँत पीसती हुई कहने लगी, "लड्डू क्या तेरा बाप है कि तू उससे माँगती है ? यदि तुझे लड्डू खानेकी इच्छा हो तो अंबरतिलकपर्वतपर लकड़ीका बोझा लेने जा।" ... (५३८-५४६) अपनी माँकी कंडेकी श्रागकी तरह जलानेवाली बात सुनकर वह रस्सी लेकर, रोती हुई पर्वतकी तरफ चली । उस समय पर्वतपर, एक रात्रिकी प्रतिमा धारणकर रहे हुए युगंधर नामक मुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। इससे पासमें रहनेवाले देवताओंने केवलज्ञानकी महिमाका उत्सव करना प्रारंभ किया था। पर्वतके आसपासके गाँवों और शहरोंमें रहनेवाले नरनारी केवलज्ञानकी बात सुनकर जल्दी जल्दी पर्वतपर जा रहे थे। अनेक तरहके वस्खालंकारोंसे सजे हुए लोगोंको आते देखकर निर्नामिका विस्मित हुई और चित्र में लिखी पुतलीसी खड़ी रही। जब उसे लोगोंके पर्वतपर जानेका कारण मालूम हुआ तय वह भी लकड़ीका बोझा, दुःखके भारफी तरह, फेंकफर लोगोंके साथ पर्वतपर चढ़ी। ".....'नीर्थानि सर्वसाधारणानि यत् ।"
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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