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________________ टिप्पणियाँ [३ दी हुई वस्तु लेना), ३८-दायक ( देनेवालेका मन देनेकी तरफ न हो वह वस्तु लेना), ३६-मिश्र (सचित्तमें मिली हुई अचित्त वस्तु लेना), ४०-अपरिणत (अचित्त हुए वगैर वस्तु लेना), ४१-लिप्त (यूँ क वगैरह लगे हाथसे मिलनेवाली वस्तु लेना), ४२-उज्झित (रस टपकती हुई वस्तु लेना) [३३ से ४२ तकके दस दोष देने और लेनेवाले दोनों के मिलनेसे होते हैं। .५ समिति-(देखो पेज २८) - १२ भावना या अनुप्रेक्षा- १. अनित्य (संसारकी चीजें अनित्य हैं-इसलिये उनमें मोह नहीं करना चाहिये) २. अशरण ( सिवा धर्म के दूसरा कोई आश्रय मनुष्यके लिए नहीं है) ३. संसार ( संसार सुख-दुखका स्थान और कष्टमय है ) ४. एकत्व (जीव अकेला ही जन्मता और मरता है) ५. अन्यत्व(परिवार, धनसम्पत्ति और शरीर सभी पर हैं) ६. अशुचि .(यह शरीर अशुचि है) ७. आस्रव (इन्द्रियासक्ति अनिष्टहै). संवर (उत्तम विचार करना) ६. निर्जरा (उदय में आए हुएं कमों को समभाव से सहना और तप के द्वारा सत्ता में रहे हुए कर्मों को नाश करने की भावना ) १०. लोकानुप्रेक्षा (संसार के स्वरूप का विचार करना) ११. वोधिदुर्लभ (सम्य. ज्ञान और शुद्ध चारित्र का प्राप्त होना दुर्लभ है) १२. धर्मस्वाख्यातत्त्व (सबका कल्याण करने वाले धर्म का सत्पुरुषों ने उपदेश दिया है । यह सौभाग्य की बात है) ५. पाँचों इन्द्रियों का निरोधः-(स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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