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________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [७८३ यौवनलक्ष्मी पर्वतसे निकलती हुई नदीके समान बह जानेवाली है और जीवन घासके पत्तेपर रही हुई बूंदके समान है। यौवन जबतक मरुभूमिकी तरह चला नहीं गया है; राक्षसीकी तरह जीवनका अंत करनेवाली वृद्धावस्था जबतक आई नहीं है, सन्निपातकी तरह जबतक इंद्रियाँ विकल नहीं हुई हैं और वेश्याकी तरह सब कुछ लेकर लक्ष्मी जबतक चली नहीं गई है तबतक स्वयमेव इन सबको छोड़कर दीक्षा ग्रहण करनेके उपायसे लभ्य-स्वार्थसाधनके लिए प्रयत्न करना चाहिए। जो पुरुष इस असार शरीरसे मोक्ष प्राप्त करता है, वह मानो काँचके टुकड़ेसे मणि, काले कौएसे मोर, कमल-नालकी मालासे रत्नहार, खराब अन्नसे खीर, छाससे दूध और गधेसे घोड़ा खरीदता है।" (५२३-५३२) सगर राजा यूँ कह रहा था तब उसके द्वारपर, अष्टापद के निकट रहनेवाले, अनेक लोग पाए और वे उच्च स्वरमें पुकारने लगे, "हमारी रक्षा कीजिए ! रक्षा कीजिए !" सगरने द्वारपोलसे उन्हें बुलावाया और पूछा, "क्या हुआ है ?" तब उन ग्रामीणोंने एक स्वर में कहा, "अष्टापद पर्वतके चारों तरफ घनाई गई खाईको पूरनेके लिए, आपके पुत्र दंडरत्नसे गंगा नदी लाए थे। उस गंगा नदीने पातालके समान दुप्पूर खाईको भी क्षणभरमें पूरं दिया और अब वह कुलटा स्त्री जैसे दोनों फुलोंकी मर्यादांका उल्लंघन करती है वैसेही, दोनों कूलोंको-किनारोंको लाँघ रही है और अष्टापदके निकटके गाँवों, आकरों और नगरोंको डुबोकर समुद्रकी तरह फैल रही है। हमारे लिए तो प्रलयकाल इसी समय आ गया है। बताइए कि हम कहाँ जाफर
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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