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________________ ७५२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सगं ६, बदल, कपट नाटकके द्वारा मुझे अपनी कला आपको दिखानी पड़ी। अब मैं कृतार्थ हुआ। आप मुझपर प्रसन्न हूलिए | अपना गुण, चाहे किसी तरहसे क्यों न हो, महान पुरुषोंको दिखाना चाहिए; अन्यथा गुण पानेके लिए जो मेहनत की जाती है वह सफल कैसे हो सकती है ? आज मेरी मेहनत सफल हुई । अब श्राक्षा दीलिए; में जाऊँगा । श्रापको अपना गुण बताकर अन्य स्थानोंके लिए अब मैं महँगा हो गया हूँ।" राजाने उसे बहुतसा धन देकर विदा किया । (५०-५१६ ) फिर राना सोचने लगा, "जैसा उसका मायाप्रयोग था ऐसाही यह संसार है। कारण, ये दिखाई देनेवाली सारी चीजें पानीके बुबुदेकी तरह देखतेही नाश हो जानेवाली हैं।" इस तरह अनेक प्रकारसे संसारकी असारताका विचार कर, विरक्त हो, गन्य छोड़, राजाने दीक्षा ग्रहण की।" इस तरहकी कथा कहकर दूसरा मंत्री बोला, "हे प्रभो! यह संसार, मेरी कही हुई मायाप्रयोगकी कथाके समान है। उसमें श्राप शोक न कर श्रात्मस्वार्थकी सिद्धिके लिए प्रयत्न करें। (५३०-५२२) - इस तरह उन दोनों मंत्रियोंके वचन सुनकर, महाप्राणके स्थानमें जैसे महाप्राण प्राता है वैसेही, चक्रीके मनमें वैराग्य उत्पन्न हुया । मगर राजाने तत्त्वसे श्रेष्ट बागीके द्वारा कहा, "तुमने मुझे ये बहुत अच्छी बातें कहीं है । प्राणी अपने अपने कमों के अनुसारही जीते हैं और मरते हैं। बालक, युवा या वृद्ध इस तरह, वयका इसमें कोई प्रमाण नहीं है। बंधु श्रादिका मिलन सपने के समान है, लक्ष्मी साथीके कान जैसी चंचल है,
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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