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________________ ७७६ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग६. फिरसे उसने राजासे कहा, "यह साक्षात मेरा पतिही है। यह युद्धमें कटकर मरा हुआ दिखाई दे रहा है। संध्या सूर्यके साथही उदय होती है और सूर्यके साथही अस्त भी होती है वैसेही पतित्रता नारी भी पतिके साथ जीती है और पतिके साथही मरती भी है। मैं जीवित रहकर अपने पिता और पिताके निर्मल कुलोंमें कलंक क्यों लगाऊँ ? में आपकी धर्मपुत्री हूँ। उसे पति बिना भी जीवित देखकर हे पिता! तुम कुलस्त्रीके धर्मके जानकार होकर भी लजाते क्यों नहीं हो ? जैसे चाँद के बिना चाँदनी नहीं रहती और बादलोंके बिना बिजली नहीं रहती वैसेही पतिके विना रहना मेरे लिए उचित नहीं है। इसलिए तुम सेवकोंको आज्ञा देकर मेरे लिए काठ मँगवायो (और चिता चुनवायो) कि जिसकी भागों में पति के शरीर के साथ, जलकी तरह प्रवेश कल" (४४६-४५१ ) उसकी, आग्रहके साथ कही हुई बात सुनकर दयालु राजा शोकसे गद्गद हुई वाणी में बोला, "हे पुत्री! तू थोड़ी देर धीरज धर । तुमे पतंगकी तरह जलकर मरना योग्य नहीं है। छोटासा कामभी बिना विचार करना उचित नहीं होता।" (४५२-४५३). राजाकी बात सुनकर वह नारी नाराज हुई और बोली, "अरे !तुम अब भी मुझे रोककर रखना चाहते हो!इससे मालूम होता है कि तुम पिता नहीं हो; तुम परस्त्री-सहोदरके नामसे प्रसिद्ध हो; यह प्रसिद्धि, दुनियाकं विश्वासके लिए ही है, परमायके लिए नहीं है। यदि तुम सचमुचद्दी. धर्मात्मा पिता हो तो तत्कालही अपनी पुत्रीको, अग्निमार्ग द्वारा अपने पतिके
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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