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________________ . . चौथा भव-धनसेठ [५३ वनकर मत रहना।" यूँ कहकर वे विजलीकी तरह आकाशको प्रकाशित करते हुए चले गए थे। इसलिए है महाराज ! आप अपने पितामह (दादा) के वचनोंपर विश्वासकर यह मानिए कि परलोक है । कारण, जहाँ प्रत्यक्षप्रमाण हो वहाँ दूसरे प्रमाणकी कल्पना क्यों करनी चाहिये ? (४००-४०६) : महावल बोला, "तुमने मुझे पितामहकी वात याद दिलाई, यह बहुत अच्छा किया। अव मैं धर्म-अधर्म जिसके कारण है उस परलोकको मानता हूँ।" (४०७) : : राजाका आस्तिकतावाला वचन सुनकर, मिथ्याष्टियोंकी वाणीरूपी रजके लिए मेघके समान स्वयंवुद्ध, मौका देखकर सानंद इस तरह कहने लगा, "हे महाराज, पहले आपके वंशमें कुरुचंद नामका राजा हुआ था। उसके कुरुमती नामकी एक स्त्री थी और हरिश्चंद्र नामका एक पुत्र था। वह राजा वड़ा क्रूर था, बड़े बड़े आरंभ-परिग्रह करता था, अनार्य कार्योंका नेता था, दुराचारी, भयंकर और यमराजकी तरह निर्दय था। उसने बहुत लमय तक राज्य किया। कारण. - "पूर्वोपार्जितपुण्यानां फलमप्रतिमं खलु ।" [ पूर्व भवमें उपार्जित धर्मका फल अप्रतिम (अद्वितीय) होता है। ] अंतमें उस राजाको धातुविपर्यय (बहुत खराव) रोग हुआ। वह आनेवाले नरकदुःखोंका नमूनास्प था। इस रोगसे उसको ईकी भरी गदियाँ कांटोंके जैसी लगने लगीं। मधुर और स्वादिष्ट (जायकेदार ) भोजन नीम जैसे कडुए लगने लगे, चंदन, अगर, कपूर, कस्तूरी वगैरा मुगधी चीजें - - -
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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