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________________ ५२.] त्रिषष्टि शलाका पुन्य-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. . इस तरह मंत्रियोंकी अलगअलग बातें सुनकर स्वाभाविक निमंतनासे मुंदर मुन्नवाने गजान कहा, "ह महाबुद्धिवान स्वयंयुद्ध, तुमने बहुत अच्छी बातें कही है। तुमने धर्मग्रहण, करनेकी बात कही, वह उचित है। हम भी धर्ममुयी नहीं है... परंतु जैसे युद्धमही मंत्रान्त्र ग्रहण किया जाता है वैसेही समयपरही धर्मका ग्रहण करना योग्य है। बहुत दिनोंके बाद आए हुए मित्रकी तरह प्रान यौवनका योग्य उपयोग किए बिना कोन उसकी उपेक्षा करेगा ? तुमने जो धर्मका उपदेश दिया है वह असामयिक मौके है। जब मधुर वीणा बज रही हो तब वेदोंके वचन नहीं शोमने । धर्मका फल परलोक है । यह संदेहास्पद है (परलोकक होने में शंका है), इसलिए तुम इस लोक मुन्नास्वादका (मुन्न भोगनेका) कैन निषेध करते हो ?" (३६५-३६६) राजाकी बात सुनकर न्ययंबुद्धन हाथ जोड़ और कहा, "महाराज! श्रावश्यक धमक पलमं कमी भी शंका नहीं करना चाहिए । क्या आपको याद है कि वचयनमें हम एक दिन नन्दनवनमें गए थे, वहाँ हमने एक सुंदर कांतिवानं देवको देखा था। उस समय उस देवने प्रसन्न होकर आपसे कहा था; मैं नुन्हारा पिनामह था। मेरा नाम अतिबल था। मैंने बुरे दोस्ती नरह, बबराकर, विषयसुन्नुस मुँह मोड़ा और तिनके की तरह राज्यको छोड़कर स्नत्रयो ग्रहण किया । अंतिम अवस्था भी नदी महल कलशल्पी त्यानमारको स्वीकार कर उस शरीरका त्याग किया। उसी प्रमावसे में लांतकाधिपनि देवनायााइमलिए तुम भी इस अनार समार, प्रमादी
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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