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________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६७१ __"इस तरह अधोलोक,तिर्यगलोक और ऊर्ध्वलोकसे विभाजित: समग्र लोकके मध्य भागमें चौदह राजलोक प्रमाण ऊर्ध्वअधों लंबी त्रस नाड़ी है; और लंबाई चौड़ाई में एक राजलोक प्रमाण है । इस त्रस नाड़ी में स्थावर और त्रस दोनों तरह के जीव हैं और इससे बाहर केवल स्थावरही हैं। कुल विस्तार इस तरह है-नीचे सातलोक प्रमाण, मध्यमें तिर्यगलोकमें एक राजलोक प्रमाण, ब्रह्मदेवलोकमें पांच राजलोक प्रमाण और अंतमें सिद्धशिला तक एक राजलोक प्रमाण है। अच्छी तरह प्रतिष्ठित हुई आकृतित्राले इस लोकको न किसीने बनाया है और न किसीने धारणही किया है। वह स्वयंसिद्ध है और आश्रयरहित आकाशमें टिका हुआ है। (७६७-८००) ___ अशुभ ध्यानको रोकनेका कारण ऐसे इस सारे लोकका अथवा उसके जुदा जुदा विभागोंका जो बुद्धिमान विचार करता है उसको धर्मध्यानसे संबंध रखनेवाली क्षायोपशमकादि भावकी प्राप्ति होती है और पीत लेश्या, पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्या अनुक्रमसे शुद्ध शुद्धतर शुद्धतम होती हैं। अधिक वैराग्यके संगसे तरंगित धर्मध्यानके द्वाराप्राणियोंको स्वयही समझ सके ऐसा ( स्वसंवेद्य ) अतींद्रिय सुख उत्पन्न होता है। जो योगी निःसंग (यानी नि:स्वार्थ) होकर धर्मध्यानके द्वारा इस शरीरको छोड़ते हैं वे वेयकादि स्वर्गों में उत्तम देवता होते हैं। वहाँ वे महा महिमावाले, सौभाग्य युक्त, शरद ऋतुके चंद्रके समान प्रभावशाली और पुष्पमालाओं तथा वखालंकारोंसे विभूषित शरीरको प्राप्त करते हैं। विशिष्ट वीर्य बोधाढ्य (यानी असा. मान्य ज्ञान व शक्तिके धारक ), कामाति ज्वर रहित (यानी
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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