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________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [५६६ उत्तर दिशामें और वायव्य कोनमें चौरासी हजार सामानिक देवोंके चौरासी हजार सुंदर रत्नमयभद्रासन विछे हुए थे। पूर्वमें इंद्रकी आठ इंद्राणियोंके आसन थे। वे ऐसे शोभते थे मानो लक्ष्मीके क्रीड़ा करनेकी माणिक्य वेदिकाएँ (खुले मंडप) हों। अग्निकोनमें अभ्यंतर पर्पदाके (सभाके) वारह हजार देवताओंके आसन थे, दक्षिण दिशामें मध्य पर्पदाके चौदह हजार देवताओंके आसन थे, नैऋत्य कोनमें बाह्य पर्पदाके सोलह हजार देवताओंके आसन थे, इंद्रके सिंहासनके पश्चिममें सात सेनापतियोंके सात आसन जरा ॐजाईपर थे और आसपास चारों दिशाओं में चौरासी चौरासी हजार आत्मरक्षक देवताओंके सिंहासन थे (२८९-३०६) इंद्रकी आज्ञासे तत्कालही इस तरहका विमान तैयार किया गया। "निष्पाते सुमनसां मनसा हीष्टसिद्धयः ।" [मनसे ही देवताओंकी इष्टसिद्धि होती है; अर्थान देवताओंकी इच्छा होते ही, उनकी इच्छा पूरी हो जाती है।] प्रभुके सामने जानेको उत्सुक बने हुए शकेंद्रने तत्कालही विचित्र आभूपण धारण करनेवाला उत्तर वैक्रिय रूप बनाया। फिर सुंदरतारूपी अमृतकी बेलोंके समान अपनी पाठ इंद्राणियोंके साथ और बड़ी नाट्यसेना और गंधर्वसेना के साथ आनंदम लीन इंद्र विमानकी प्रदक्षिणा देकर पूर्व तरफकी रत्नमय सीढ़ियोंसे विमानपर चढ़ा और वीचके रत्नसिंहासनपर पूर्वकी तरफ मुंह करके, सिंह जैसे पर्वतके शिखरको शिलापर बैठता है वैसे, बैठा। कमलिनियोंके पत्तोपर जैसे हंसिनियों
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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