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________________ - . श्री अजितनाथ-चरित्र [५४७ - विजयादेवीने देखा । (१८-३६) इंद्रका आगमन उस समय इंद्रका आसन काँपा, इससे उसने हजार आँखोंसे भी अधिक नेत्ररूपी अवधिज्ञानसे देखा । देखनेसे उसे तीर्थंकर महाराजका गर्भप्रवेश मालूम हुआ। इससे रोमांचित शरीरवाला इंद्र विचार करने लगा कि जगतके लिए आनंदके हेतुरूप परमेश्वर विजय नामके दूसरे अनुत्तर विमानसे च्यव कर, अभी जंबूद्वीपके दक्षिणार्द्ध भरतखंडके मध्यभागमें आई हुई विनीतापुरीमें जितशत्र राजाकी विजयादेवी नामक रानीके गर्भमें आए हैं। इस अवसर्पिणीमें, करुणारसके समुद्रके समान, ये दूसरे तीर्थंकर होंगे। यों सोच , आदरके साथ, सिंहासन, पादपीठ, और पादुकाओंका त्याग कर, खड़े हुए। फिर तीर्थकरकी दिशाकी तरफ सात-आठ कदम चल, उत्तरासंग(उत्तरीय वन) धारण कर, दाहिना घुटना जमीन पर रख, वायाँ घुटना जरा झुका, मस्तक और हाथसे जमीनको छू उसने भगवानको नमस्कार किया। फिर शकस्तत्र पूर्वक जिनवंदन कर वह सौधर्मेंद्र, विनीता नगरीमें जितशत्र राजाके घर आए। दूसरे इंद्र भी आसनोंके काँपनेसे अहंतके अवतारको जानकर भक्तिसे तत्कालही वहाँ आए । वे शक्रादि इंद्र, कल्याणकारी भक्तियाले होकर, स्वामिनी श्री विजयादेवीके शयनगृहमें आए। ... उस समय उस शयनगृहके आँगनमें आँवलोंके जैसे मोटे समवर्तुल ( एकसे गोल) निर्मल और अमूल्य मोतियोंके स्वस्तिक ( साँथिए) बने हुए थे। नीलमणिकी पुतलियोंसे अंकित स्वर्णके स्तंभोंसे और मर्कतमणिके पत्रोंसे, उसके द्वार . . . .
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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