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________________ ५४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्ष २. सर्ग १. - पुजला होता है । श्रहंकाररहित, सुंदर श्राभूषणोंसे भूपित और अहमेंद्र के समान वे देवता सदा प्रतिकाररहित होकर सुखशय्या में सोते रहते हैं। शक्ति होते हुए भी उत्तरवैक्रिय निर्माण करके किसी दूसरे स्थानपर नहीं जाते। अपनी अवधिज्ञानकी संपत्तिसेवेसारी लोकनालिकाका अवलोकन किया करते हैं। उनको श्रायुक सागरोपमकी संख्या नितन पक्षांसे बानी तेतीस पक्षोंके बाद एक बार श्वास लेनापड़ता है और उतने हलार वर्षके यानी तेतीस हजार वर्ष बाद भोजनकी इच्छा होती है। इस तरहका उत्तम सुख देनेवाले उस विमानमें उत्पन्न होनेसे वे निर्वाण-मुम्बके समान उत्तम मुखका अनुभव करते थे। इस तरह रहते हुए जब श्रायुकं च महीने बाकी रहे तब दूसरे देवोंकी तरह उनको मोह न हुया, मगर पुण्योदय निकट पानसे उनका तेज बढ़ा। अमृतक सरोवर में इसकी तरह अद्वैत मुखके विस्तारमं मग्न उस देवन उस स्थानपर तेतीस सागरोपम प्रमाण की आयु एक दिनकी तरह पूर्ण की (३०६-३१२) आचार्य श्री हेमचंद्राचार्य विरचित त्रिपष्टिशलाका पुरुष चरित्र नामक महाकाव्यके दूसरे पर्वमें, श्री अजितस्वामीके पूर्वमत्र-वर्णन नामको प्रथम सर्ग समाप्त ।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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