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________________ ५२६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २ सर्ग १. - - भावका व्यवहार करना । अथवा तुम्हें ऐसी सलाह देनेकी जरूरतही नहीं है; कारण, फुलवानोंका तो ऐसा स्वभावही होता है। (१४६-१६२) मंत्रियोंने कहा, "हे स्वामी ! दूरमोक्ष (जिनके मोक्ष जानेका समय अभी दूर है ऐसे ) प्राणियोंके मनमें कभी ऐसे भाव पैदा नहीं होते । आपके पूर्वज, इंद्रके समान अपने पराक्रमसे, जन्महीसे अखंड शासन द्वारा पृथ्वीको अपने वशमें रखते थे; मगर जब ये अनिश्चित शक्तिवाले होते थे तब वे यूँककी तरह इस राज्यको छोड़कर नीन रत्नोंसे पवित्र बने हुए व्रतको ग्रहण करते थे। श्राप महाराज इस पृथ्वीको अपन भुजवलसे धारण किए हुए हैं। इसमें हम तो सिर्फ, घरमें कलेके स्तंभकी तरह, शोभाके समान हैं। यह साम्राज्य जैसे आपको कुल परंपरासे मिला है वैसेही, अवदान (पराक्रम ) सहित और निदान (कारण) रहित व्रतको ग्रहण करना भी आपको परंपरासे प्राप्त है। आपका दूसरा चैतन्य हो इस तरह यह राज्यकुमार पृथ्वीके भारको कमलकी तरह सरलतासे, उठानेमें समर्थ है। आप मोक्षफल देनेवाली दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं तो प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण कीजिए। आप स्वामी उच्च प्रकारकी उन्नति करें, हमारे लिए तो यही यात बड़े आनंदकी है। पूर्ण न्याय-निष्टावाले और सत्व तथा पराक्रमसे मुशोभित इन कुमारके द्वारा, आपकी तरहही, यह पृथ्वी राजावाली बने।" (१६३-१७०) ऐसे उनकं आज्ञापालकताके वचन सुनकर पृथ्वीपति प्रसन्न हुआ और छड़ीदार के द्वारा उसने राजकुमारको बुलाया। मानो मूर्तिमान कामदेव हो ऐसा वह राजकुमार राजहंसकी
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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