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________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [ ५२५ है। मैंने अज्ञानके कारण चिरकालतक इस आत्माको आत्मासेही वंचित रखा है; कारण-फैलते हुए गाढ़ अंधकारमें आँखोंवाला पुरुष भी क्या कर सकता है ? अहो! इतने समय तक ये दुर्दम इंद्रियाँ तूफानी घोड़ेकी तरह मुझे उन्मार्गपर ले गई थी। मैं दुष्टबुद्धि विभितक ( भिलावेके) पेड़की छायाके सेवनकी तरह परिणाममें अनर्थ करनेवाली विषयवासनाकी सेवा अबतक करता रहा हूँ। गंधहस्ति जैसे दूसरे हाथियोंको मारता है वैसेही, दूसरोंके पराक्रमको नहीं सहन करनेवाले मैंने, दिग्विजयमें अनेक निरपराधी राजाओंको मारा है। मैं दूसरे राजाओंके साथ संधि आदि छःगुणोंको निरंतर जोड़नेवाला हूँ मगर उसमें ताड़वृक्षकी छायाकी तरह सत्यवाणी कितनी है ? अर्थात बिलकुल नहीं है। मैंने जन्मसेही दूसरे राजाओंके राज्यको छीनलेनेमें अदत्तादान-ग्रहणकाही आचरण किया है। मुझ रतिसागरमें डूबेहुएने, कामदेवका शिष्य होऊँ इस तरह निरंतर अब्रह्मचर्यकाही सेवन किया है। मैं प्राप्त अर्थों से अतृप्त था और अप्राप्त अर्थोंको पानेकी इच्छा रखता था, इससे अबतक महान मूर्छावश था। जैसे कोई भी चांडाल, स्पर्श करनेसे स्पृश्यता पैदा करता है वैसेही, हिंसा आदि पाप कार्यों में से एक भी कार्य दुर्गतिका कारण होता है। इसलिए आज मैं वैराग्यके द्वारा प्राणातिपात (हिंसा) वगैरा पाँचों पापोंका गुरुके समक्ष त्याग करूँगा (और गुरुसे पाँच महाव्रत ग्रहण करूँगा!) साँझके समय सूरज जैसे अपना तेज अग्निमें आरोपण करता है वैसेही, मैं अपना राज्यकारभार कवचहरकुमारपर आरोपण करूँगा (राजकुमारको राज्य दूंगा।) तुम इस कुमारके साथ भी भक्ति
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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