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________________ ५२२ ) त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग १. वह भूमि और कहाँ जलती हुई भट्टीपर सेकी हुई रेतीवाली संतापकारी यह भूमि ? कहाँ फलोंके भारसे मुके हुए वे वृक्ष और कहाँ दीमकके खानेसे खोखले बने हुए ये वृक्ष ? कहाँ अनेक लताओंके वलयों (घेरों) से सुंदर बनी हुई वे वाड़ें और कहाँ सपों के द्वारा छोड़ी हुई कंचुलियोंके घेरोंसे भयंकर बनी हुई ये बाई ? कहाँ वृक्षोंके नीचे लगा हुआ फूलोका वह ढेर और कहाँ उगे हुए काँटोंका यह समूह ? इस तरह उस बगीचेको असुंदर देखकर में सोचने लगा, जैसे यह बगीचा इस समय भिन्नही प्रकारका (असुंदर ) हो गया है वैसेही सभी संसारी जीवोंकी भी स्थिति है । जो मनुष्य अपनी सुंदरतासे कामदेवके समान लगता है वही मनुष्य जब भयंकर रोगग्रस्त होता है तब बहुत कुरूप मालूम होता है। जो मनुष्य छटादार वाणीसे बृहस्पतिके समान उत्तम भापण कर सकता है वही जीम रुक जानेसे मर्वथा गूंगा बन जाता है; जो आदमी अपनी सुंदर चाल और गतिसे जातिवान घोड़ेसा आचरण करता है वहीं कभी वायु वगैरा रोगोंसे पीड़ित होकर सर्वथा पंगु बन जाता है जो आदमी अपने पराक्रमी हाथोंसे हस्तिमनके समान काम करता है वही आदमी रोगादिस हाथोंकी शक्ति खोकर टूठा बन जाता है; जो श्रादमी कभी गीध समान दूरकी चीजें देखनेकी नेत्रशक्ति रखता है वही आँखोंकी बीनाई खोकर दूसरोको देखनेमें असमर्थ-अंधा बन जाता है। ग्रहो ! प्राणियोंके शरीर क्षणमें सुंदर, क्षणमें अमुंदर, क्षणमें समर्थ, क्षणमें असमर्थ, क्षम हष्ट (देखा) और क्षणमें अष्ट (न देखा) हो जाता है। इस तरह विचार करते हुए मुम, जप करनेवालेको मंत्रशक्ति
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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