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________________ ५२०] त्रिषष्टि शन्नाका पुरुप-चरित्र; पर्व २. सर्ग १. गई. भगवन ! मनुष्यको मसाररूपी विषवृक्षके अनंत दुबपी फलोंका अनुभव करते हुए भी, वैराग्य नहीं होता, मगर. श्रापको त्रैगन्य हुश्रा और श्रायने दुनियाका त्याग कर दिया। इसका कोई कारण होना चाहिए, कृपा करके बनाइए।" (१५-१६) राजा इस तरह पूछनेपर, अपने दाँतोंकी किरणोंकी चंद्रिका प्राचारानलको इन्चल करते हुए श्राचार्य महाराज प्रसन्न होकर बान्त, "हे गजा इस दुनिया सभी कार्य, बुद्धिमानके लिए बैंगन्यही कारण होते हैं। उनमेंसे कोई एक संसारका त्याग करने के लिए अन्य होता है। मैं पहल गृहवाममें था नत्र एक बार हाथी, घोड़, रथ और प्याकि साथ दिग्विजब करने के लिए रवाना हुया । मार्गमें चलते हुए एक बहुतही सुंदर बगीचा मेन देखा। युद्धांकी धनी छायाम मनोहर वह चीचा, जगनमें भ्रमण करने की हुई लक्ष्मीका विश्रामम्यान या मान्नुम होना था। वह कंकाल वृद्धोक चंचल पल्लवोंसे मानो नाचना हो, मल्लिका विऋमित पुण्यगुच्छांस मानो हसना हो, बिन हम ऋदेवपुष्योंके अमृहसे मानो रोमांचित हुश्रा हो, ल हुए कतुकीक पुष्परूपी नेत्रोंसे माना देवता हो, शान और. बाह क्षॉम्पी ऊँची भुजाओस मानी दूरहीसे सूर्यक्री नी हई किरणोंको यहाँ गिरन रोकता हो, वृक्षांस मानो मुमाफिगेको गुप्त स्थान बताता हो, नालास मानों पद पदपर पाद्य (पैर धोनका पानी) तयार करता हो, भरत पानीके रहटन्यत्रोंस मानो पारिताको शृन्खलाबद्ध करता हो, गुंजार करते हुए मैत्रगेम मानी पथिकोंको बुलाना हो और तमाल,
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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