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________________ - ४६०] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सग ६. प्रभुकी चिताग्निको सदा पूजने लगे और धनपति जैसे निर्वात प्रदेशमें (जहाँ हवा न हो ऐसी जगहमें। लक्षदीपकी रक्षा करते हैं वैसे वे उस आगकी रक्षा करने लगे । इक्ष्वाकुवंशके मुनियोंकी चिताग्नि यदि शांत होने लगती थी तो उसे स्वामीकी चिताग्निसे जलाते थे और दूसरे साधुनोंकी चिताग्निको, अगर ठंडी होती थी नो, इक्ष्वाकुवंशके माधुओंकी चिताग्निसे जलाते थे, मगर वे दूसरे साधुओंकी चिताग्निका, दो (प्रमुकी और इन्चायुकुल के मुनियोंकी) चिताग्नियोंके माथ, संक्रमण नहीं करते थे। यह विधि ब्राह्मणों में अब भी चल रही है। कई प्रभुकी चिताग्निकी राख लेकर उसको भनि सहित बंदना करते थे और शरीरपर लगान थे। तभीसे भन्मभूयणचारी तापस हुए। (५४५-५६१) फिर मानो अष्टापद गिरि नए नीन शिखर हों ऐसे, उन चिताओंके स्थान में, देवताओंन रत्नकें तीन स्तूप बनाए । वहाँसे उन्होंने नंदीश्वरद्वीप जाकर, साधन प्रतिमा के समीप अष्टाह्निका उत्सव क्रिया और फिर इंद्र सहित सभी देवता अपने अपने न्यानोपर गए। वहाँ वे अपने अपने विमानों में सुधर्मा सभा ओंके अंदर माणवक लंमपर वन्नमय गोल डिब्बाम प्रभुकी डाढ़े रखकर प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगे। इसके प्रभावसे उनके लिए हमेशा विजयमंगल होने लगे। (५६२-५३५) . . . भरतका अष्टापदपर मंदिर बनवाना . मरन गलाने प्रभुक संस्कारके समीपकी भूमिपर तीन कोस ऊंचायोरमानामोक्षमंदिरकी वैदिकाहो ऐसा सिंहनिपद्या'
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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