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________________ ४६.] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पत्र १ सर्ग ६. देवताओंने तत्कालही वहाँ समवसरणकी रचना की श्रीर भगयान उसमें बैठकर धर्मदेशना देने लगे। अधिकारी पुरुयान, पवनवेगसे श्राकर, भरतको प्रभुकं पधारनेके समाचार दिए। भरतने पहलके जितनाही इनाम उन पुम्पोंको दिया । कहा है. कि "दिने दिने कल्पतरुदानो न हि हीयते " [कल्पवृक्ष प्रति दिन देना रहे तो भी क्षीण नहीं होता।] फिर भरत, अष्टापद पर्वतपर समोसरे (पधारे) हुए प्रभुके पास श्रा, प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर, स्तुति करने लगा। ____ "हे जगत्पति ! मैं अन हूँ तो मी, आपके प्रभावसे श्रापकी स्तुति करता है। कारण, "शशिनं पश्यतां दृष्टिमंदापि हि पटूयते ।" [चंद्रको देखनेवाले पुरुपकी मंष्टि भी सामर्थ्यवान होती है।] हे स्वामी ! मोहरूपी अंधकारमें हवे हुए इस जगतको प्रकाश देने में दीपक समान और श्राकाशकी तरह अनंत श्रापका केवलज्ञान सदा विजयी है। हे नाथ ! प्रमादरूपी निद्रामें मग्न मेरे जैसे पुरुपोंके कार्यके लिए श्राप सूर्यकी तरह बार बार. गमनागमन करते हैं। जैसे समय पाकर पत्थरकी तरह जमा हुया घी श्रागसे पिघल जाता है वैसेही लाखों जन्मोंमें उपार्जन किए हुए कर्म श्रापके दर्शनोंसे नाश हो जाते हैं। - हे प्रभो ! एकांत मुपमकाल (दुसरं पार) से मुपम दुःखम काल (तीसरापारा ) अच्छा है कि जिस कालमें कल्पवृक्षसे भी अधिक फल देनेवाले श्राप उत्पन्न हुए है। ६ सर्वभुवनोंके
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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