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________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४५७ तरह विचार करता, "अरे ! मैं किससे हारा हूँ मेरे लिए किस का भय बढ़ रहा है ? हाँ, समझा,- मैं कषायोंसे पराजित हुआ हूँ और कषायोंका भय ही मेरे लिए बढ़ रहा है। इसलिए ये विवेकी मुझे नित्य याद दिला रहे हैं कि आत्माका हनन न करो, न करो ! तो भी मैं कैसा प्रमादी और विषय-लोलुप हूँ ! मेरी धर्मके प्रति कैसी उदासीनता है ! इस संसारपर मेरा कितना मोह है ! और महापुरुषके योग्य मेरे इस आचारमें कैसा विपर्यय है ! (कैसी गड़बड़ी है !)" इस तरहके विचारोंसे उस प्रमादी राजाका हृदय, गंगाके प्रवाहकी तरह, थोड़ी देरके लिए धर्मध्यानमें प्रवेश करता, परंतु पुनः वह शब्दादिक इंद्रियार्थमें आसक्त हो जाता । कारण, "कर्मभोगफलं कोऽपि नान्यथा कर्तुमीश्वरः ।" [कर्मके भोगफलको मिटानेमें कोई भी समर्थ नहीं है। (२३०-२३६) : एक दिन रसोइयोंके मुखियेने आकर महाराजसे विनती की, "आजकल भोजन करनेवालोंकी संख्या बहुत अधिक हो गई है इसलिए यह जानना कठिन हो गया है कि, कौन श्रावक है और कौन नहीं है ।" यह सुनकर भरतने कहा, "तुम भी श्रावक हो, इसलिए आजसे तुम परीक्षा करके भोजन दिया करो।" इसके बाद रसोइयोंका मुखिया भोजन करनेके लिए आनेवालोंसे पूछने लगा, "तुम कौन हो ? और कितने व्रत पालते हो ?" जो कहते कि हम श्रावक हैं और पाँच अणुव्रतों तथा सात शिक्षातोंका पालन करते हैं उनको वह भरत राजाके पास ले जाता तब महाराजा भरत ज्ञान, दर्शन और चारित्र
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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