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________________ १५६ ] त्रिषष्टि शनाका पुभय-चरित्रः पत्र १. मग है. मनमचिंतन कर इंद्री नरबही अपनी अयोध्या नगरी में आए। रावको उन्होंने इंदकी उंगलीकी स्थापना कर वहाँ अष्टाहिता उत्सब किया । कहा है "मती स्नेह च सतां ऋतंव्यं तुभ्यमेव हि ।" [सन्ननोंका कन्व्य मनि और न्नेह दोनोंहीमें रहता है। नमीसे लोगोंने इतनम गेपकर, सर्वत्र शोत्सव करना प्रारंभ किया। वह अब भी प्रचलित है।। २82-२५) दुर्च जैसे एक न्यानसे दमा न्यानपर जाना है वैसही भन्यजनयी कमलोंका प्रचार करनेके लिए भगवान को पमन्वामीने अमापद पर्वतसे दूसरी जगह विहार किया। (२) ब्राह्मगोंको उत्पत्ति घर अयोध्या मरल राजाने समी श्रावकोंको वृत्ताकर कहा, "आप लोग सभी भोजन करने निगमेरे घर सदा श्रानकी कृपा कीजिए, ऋषि काम छोड़िए और निरंतरत्राध्यायमें लीन रहकर अपूर्व दान प्रदा करनमें तत्पर रहिए। भोजन कर हर गेज मेरे पान पाइए और इस तरह बोलिए"जिनो मत्रान् बद्धते मीप्तस्मान्मा हन मा इन !" [आप हारे हुए है, भय बना है इसलिए, 'मत मारिये मन मारिय (अर्थात श्रात्मगुणोंका नाश मन कीजिए।)]. (२२७-२८) ऋकीकी यह बात मानकर व मुद्रा वक्रीक घराने लगे और हररोज भोजन करके ऊपर बनाए हुए वचन बड़ी तत्पर ताके साथ स्त्राच्यायकी नरद्द बोलने लगे। देवताओंकी रह रविमें मान और प्रमादी चक्रवर्ती उन शब्दोंको नुनकर इस
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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