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________________ ४३६] त्रिष्टि शलाका पुन्प-चरित्रः पर्व १ सर्ग इ. त्रामीका मैं पीत्र है और अखंड, छःखंड सहित पृथ्वीमंडलक इंद्र और विवेक अद्वितीय निधिल्प भरत गजाका मैं पुत्र हूँ। चतुर्विध संघ सामने अपमात्रामीके पासस पंच महावतांक ञ्चारणपूर्वक मैंन दीक्षा ली है। इसलिए लैंस लड़ाई मेसे भाग जाना वीर पुरुष के लिए उचित नहीं है बैंसही इस स्थानसे हटकर घर जाना भी उचित नहीं है, लनान्सद है। परंतु बड़े पर्वतकी तरह भारी कठिननास उठान लायक इम चारित्ररूपी भारको एक पलक लिए भी उठाने में असमर्थ हूँ। मेरे लिए व्रत पालना कठिन है और उसे छोड़कर घर जानले कुल मलिन होगा, इसमें एक तरफ नदी और दूसरी तरफ सिंह इस न्याय. में मैं श्रा पड़ा मगर न मालूम हुआ है कि,पर्वतपर चढ़ने के लिए नैस पगडंडी होती है वैदही, इन ऋठिन मार्गमें भी एक भुगम माग है। (८-१2) मात्रु मनदंड, बचनड और कायदंडको जीतनेवाले हैं और मैं तो इनसे जीना गया है, इसलिए में त्रिदंडी बनूंगा। थे श्रमण इंद्रियों को जीतकर और केशांकालोच कर मुंडित होकर रहते हैं। मैं मुंडन ऋगऊँगा और शिया रगा। ये स्थूल और मुन्न दोनों तरह प्राणियोंक वयस विरक्त हुए हैं और में कंवल स्थूल प्राणियोंकि वयस विरत हूँगा। य अकिंचन रद्द हैं और में स्वर्गमुद्रादिक वगा। इन्होंने उपानहका (तांका) त्याग किंया है और में उखानह धारण कगा। ये अठारह हजार शानक अंगोंको धारनेले अति सुगंधवान हैं; मैं उनमें रहित होनसे दुगंधणं है, इसलिए चंदन आदि ग्रहण काँगा! ग्रं अगगा मोहनहिन हैं और मैं मोहसे घिरा हुआ है। हम चिह
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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