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________________ प्रथम भव-धनसेठ २३ न मिली। सार्थवाह इधर-उधर देखने लगा। उसे उसके निर्मल अंत:करणके समान ताजा घी दिखाई दिया । (१३७-१३८). ___' सार्थवाहने पूछा, “यह आपको कल्पेगा ( आपके उपयोगमें आ सकेगा ? साधुओंने "कल्पेगा" कहकर पात्र. (लकड़ी की बनी हुई पतीली विशेष ) रखा । (१३६) । ___ "मैं धन्य हुआ, मैं कृतार्थ हुआ, मैं पुण्यवान हुआ, सोचते हुए सेठका शरीर रोमांचित हो गया। उसने अपने हाथोंसे साधुओंको धी बहोराया और मुनियोंकी अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे वंदना की; मानो उसने आनन्दानुसे पुण्यांकुर को अंकुरित किया। साधु सर्व कल्याणोंकी सिद्धिके लिए सिद्धमंत्रके समान 'धर्मलाभ' देकर अपने डेरेपर गए । सार्थवाहको (धनसेठको) मोक्षवृक्षके बीज के समान दुर्लभ ऐसा बोध वीज (सम्यक्त्व ) प्राप्त हुआ। रातको सार्थवाह फिर मुनियोंके डेरेपर गया, और गुरु महाराजको वंदनाकर, उनसे आज्ञा माँग, (हाथ जोड़ ) बैठा । धर्मघोपसूरि ने उसको श्रुतकेवलीकी तरह मेधके समान गंभीर वाणीमें नीचे लिखा उपदेश दिया। (१४०-१४५) .. "धर्म उत्कृष्ट मंगल है, स्वर्ग और मोक्षको देनेवाला है और संसाररूपी वनको पार करनेमें रस्ता दिखानेवाला है। धर्म माताकी तरह पोषण करता है, पिताकी तरह रक्षा करता है, मित्रकी तरह प्रसन्न करता है, बन्धुकी तरह स्नेह रखता है, गुरुकी तरह उजले गुणोंमें ऊँची जगह चढ़ाता है और स्वामीकी तरह बहुत प्रतिष्ठित बनाता है। धर्म सुखोंका बड़ा महल है,
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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