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________________ भरत-बाहुवलीफा वृत्तांत [३६७ रूपी वाणीसे प्राणियोंके कर्मरूप बंधन गिर जाते हैं । हे जगनाथ ! में बार बार प्रणाम करके आपसे इतनीही याचना करता हूँ कि आपकी कृपासे, समुद्रके जलकी तरह आपकी भक्ति सदा मेरे हृदयमें कायम रहे.।" इस तरह आदिनाथकी स्तुति की और तब उन्हें भक्ति सहित प्रणाम करके चक्रवर्ती देवगृहसे बाहर निकला । (३६७-४०५) . फिर बार वार साफ करके उज्ज्वल बनाया हुआ कवच चक्रोने अपने उत्साहित शरीरमें पहना । शरीरपर दिव्य और मणिमय कवच धारण करनेसे भरत ऐसा शोभने लगा जैसे माणिक्यकी पूजासे देवप्रतिमा शोभती है । बीचमेसे ऊँचा और छत्रकी तरहका गोल स्वर्ण-रत्नका शिरस्त्राण उसनेधारण किया; वह दूसरे मुकुटसा मालूम होता था। सर्पके समान अत्यंत तेज वाणोंसे भरे हुए दो भाथे उन्होंने अपनी पीठपर बाँधे और इंद्र जैसे ऋजुरोहित धनुप ग्रहण करता है, ऐसे उन्होंने शत्रुओंके लिए विषम ऐसे कालपृष्ठ धनुपको अपने बाएँ हाथमें लिया। फिर सूरजकी तरह दूसरे तेजस्वियोंके तेजको ग्रास करनेवाले, भद्र गजेंद्रकी तरह लीलासे कदम रखनेवाले, सिंहकी तरह शत्रुओंको तिनकेंके समान गिननेवाले, सर्पकी तरह दुःसह दृष्टिसे भयभीत बनानेवाले और इंद्रकी तरह चारणरूपी देवोंने जिनकी स्तुति की है ऐसे, भरत राजा निस्तंद्र ( ताजा दम ) गजेंद्रपर सवार हुए । (४०६-४१३) कल्पवृक्षकी तरह याचकोंको दान देते, हजार आँखोंवाले इंद्रकी तरह चारों तरफसे आई हुई अपनी सेनाको देखते, राजईस कमलनालको ग्रहण करता है ऐसे एफ एक बाण लेते,
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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