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________________ ३७२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्य १. सर्ग ५. असमर्थ राना ग्बुद स्वामी होते हुए भी उन्हें ( भरतको ) स्वामी मानकर उनकी सेवा करते हैं, कारण उन निर्बल राजायांको पुरस्कार देन या सला करने में मरन समर्थ है। यदि में प्रानुन्नेहके वश होकर उनकी सेवा कर तो भी उस सेवाका संबंध उनके चक्रवर्तीपनही लगाया जाएगा। कारण "....."यत् अवद्ध मुखो जनः ।" लोगोंक मुँह बंद नहीं किए जासकत में उनका निर्मय भाई हूँ शोर वं मुझ श्रादा करने योग्य हैं, मगर जातिस्नेहफा इसमें क्या काम है ? ....... वज्रेण न विदायते।" . विचका बन्नस नाश नहीं होता। वह भन्ने मुर, अमुर और नरोकी संवास प्रसन्न हो; मुझे इससे क्या मतलब है ? सजा हुआ रथ भी सीध रन्तपर ही चल सकता है। अगर यह वराव गन्तपर चलताहे तो टूट जाता है। इंद्र पिताजीका मत है, इसलिए मरनको पितानीका बड़ा लड़का सममकर अपने श्रावं यासनपर विद्याता है इसमें भरतके लिए अभिमान करनकी कोनसी बात है ? यह सच है कि मरतल्पी समुद्रम नुसरे गाना सेना सहित मुहीमर. सई अनान पाटेक समान हुए हैं, मगर मैं, असा तंजवान तो उस समुद्री बड़वानन्तके समान है। सूर्यके तंज में जैसे जमात्र लीन हो जाते हैं, उसी तरह भरत राजा अपने घोड़ा, हाथियों, ज्यादा और सेनापति सहित मुममें लय हो जाते हैं। बचपनमें हाथ की तरह मन अपने हाथ उनका पैर पकड़कर उन्हें
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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