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________________ ३४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पव १. सर्ग ३. द्वारा दिया गया ऋषभ स्वामीका मुकुट, उस अभिषिक्त और राजाओंके अग्रणी चक्रवर्तीके मस्तकपर रखा; उसके दोनों कानोंमें रत्नकुंडल पहनाए; वे चंद्रमाके पास रहनेवाले चित्रा और स्वाति नक्षत्र के समान मालूम होते थे धागेमें पिरोए बिना एक साथ हारके रूपमें एक मोतीही उत्पन्न हुआ हो ऐसे सीपके मोतीका एक हार उनके गले में पहनाया; मानो सभी अलंकारोंके हार रूप राजाका युवराज हो ऐसा एक सुंदर अर्धहार उनकी छातीपर आरोपण किया; उज्ज्वल व कांतिसे सुशोभित दो देवदूष्य वस्त्र राजाको पहनाए; ऐसा जान पड़ता था मानों वे कांतिमान अभ्रकके संपुट हों; एक सुंदर फूलोंकी माला महाराजाको गलेमें धारण कराई; ऐसा जान पड़ता था मानो वह लक्ष्मीके उरस्थलरूपी मंदिरका कांतिमान किला था। इस तरह कल्पवृक्षकी तरह अमूल्य वस्त्र और माणिक्यके आभूषण धारण करके महाराजाने, स्वगके खंडके समान उस मंडपको मंडित किया। फिर सर्व पुरुषोंमें अग्रणी और महान बुद्धिमान महाराजाने छड़ीदारके द्वारा सेवक पुरुषों को बुलाकर आज्ञा की, "हे अधिकारी पुरुषो ! तुम हाथियोंपर सवार होकर सारे नगरमें ढिंढोरा पिटवाकर बारह बरस तकके लिए विनितानगरीको मेहसूल (भूमिकर) जकात ( आयातकर ), दंड, कुदंड और भयसे मुक्त करके आनंदपूर्ण वनाओ।" अधिकारियोंने तत्कालही ढिंढोरा पिटवाकर राजाकी आज्ञापर अमल किया । कहा है "रत्नं पंचदशं ह्याज्ञा चक्रिणः कार्यसिद्धिषु ।" कामको सफल बनाने में चक्रवर्तीकी आज्ञा पंद्रहवें रत्न__के समान है। (६५८-७००) . .:.: .. .
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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