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________________ ३४०] त्रिषष्टि शलांका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. वैसेही उत्सबके साथ राजमहल में प्रवेश किया। वहाँ कुछ देरके लिए पूर्वकी तरफ मुंहवाने सिंहासनपर बैट, सत्कथाएँ मुन, वे स्नानागारमें गाए। हाथी जैसे सरोवरमें स्नान करता है, वैसेही स्नान करके उन्होंने परिवारके साथ बैठ अनेक तरहके रसवाला भोजन किया । पीछे, बोगी से योगमें समय बिताता है वैसेही राजाने नवरस नाटक देखने और मनोहर संगीत सुननेमें झुछ काल बिताया (६५-६६८ ) एक बार मुर-ननि आकर विनती की, "ह महाराज ! थापन विद्याधरों सहित छःखंड पृथ्वीको जीत लिया है इसलिए हे इंद्रकं समान पराक्रमी महाराज ! हमें यात्रा दीजिए कि हम आपका महाराज्याभिषेक करें। महाराजाने श्राना दी, तब देवताओंने नगरके बाहर ईशानकोणमें, मुधर्मा समाका पक खंड हो गया मंडप बनाया। वे दद्रों, नदियों, समुद्रों और दूसरे नीयसि जल, औषधि और मिट्टी लाए। महाराजाने पापधशालामें जा अष्टम तप किया । कारण "गज्यं तपसाप्तमपि तपसैव हि निंदति ।" [ नपन्या द्वारा पाया हुया राज्य तपस्यासही मुखमय रहना है। ] अट्ठम तप पूरा होनेपर अंत:पुर (पत्नियों ) और परिवारकं लोगोंक साथ हाथीपर सवार हो चक्रवर्ती उस दिव्यमंडप गए। फिर.अंत:पुर और हजारों नाटकों के साथ उन्हान उत्तम प्रकारले बनाए हुए अभियक-मंडपमं प्रवेश किया। वहाँ व सिंह श्रासनवाल स्नानपाठपर बंट हा पसे मालूम होत मानों हाथी परनके शिखर पर चढ़ा है मानों इंद्रकी प्रीनिके लिए होम व पूर्व दिशाकी तरफ मह करके बैठमानो थोडस
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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