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________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [३२१ __अनार्य लोगोंको आर्य वनाना चाहते थे। (४४६-४५६) एक दिन दिग्विजयमें जमानत के समान, तेजस्वी विशाल चक्ररत्न राजाकी श्रायुधशालामेंसे निकला और क्षुद्र हिमवंत पर्वतकी तरफ पूर्व दिशाके मार्गसे चला । जैसे जलका प्रवाह नालेके रस्तेसे होता है वैसेही, चक्रवर्ती भी चक्रके पीछे पीछे चले। गजेंद्रकी तरह लीलासे चलते हुए महाराज कई दिनोंकी मुसाफिरीके बाद क्षुद्रहिमाद्रिके दक्षिण भागके पास आए। भोजपत्र, तगर और देवदारु के वृक्षोंसे भरे हुए उस प्रदेशके पांडुकवनमें महाराजने इंद्रकी तरह, छावनी डाली । वहाँ क्षुद्रहिमाद्रिकुमारदेवके उद्देशसे ऋपभात्मजने (भरतने ) अष्टम तप किया। कारण ..........'कार्यसिद्धेस्तपोमंगलमादिमम् ।" [काम सिद्ध करनेके लिए तपस्या प्रारंभका मंगल है।] रातके अंतमें सूरज जैसे पूर्व समुद्रसे बाहर निकलता है वैसे अट्ठम पूर्ण होनेपर सवेरेही तेजस्वीमहाराज रथमें बैठकर छावनी रूपी समुद्रसे बाहर निकले और आटोप (अभिमान) सहित जल्दी जाकर महाराजाओंके अग्रणीने अपने रथके अगलेभागके (डंडेसे ) क्षुद्र हिमालय पर्वतपर तीन वार आघात किया। धनुर्धरकी. वैशाख-आकृतिमें रहकर महाराजने अपने नामसे अंकित बाण हिमाचलकुमार देवपर चला दिया। पक्षीकी तरह वहत्तर योजन तक आकाशमें उड़ता हुआ याण देवके सामने जाकर गिरा। अंकुशको देखकर जैसे उन्मत्त हाथी बिगड़ता है १-याण चलाने ममय होनेवाली श्राकृतिविशेष ।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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