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________________ २६८] निषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. . है। हे प्रभो ! मैं पश्चिम दिशामें, सामंत राजाकी तरह रहकर सदा पृथ्वीपर शासन करनेवाले आपकी आज्ञा रहूँगा।" यो कहकर पहले चलाया हुआ बाण,युद्ध-विद्याका अभ्यास करनेके मैदानमें चलाए गए वाणोंको वापस लाकर देनेवाले नौकरकी तरह, प्रभासेश्वरने भरतको भेट किया; उसके साथही अपने मूर्तिमान तेजके समान कड़े, कंदोरा, मुकुट, हार और दूसरी कई चीजें और संपत्ति भी भेट की । उसको श्राश्वासन देने के लिए भरतन ये सभी चीजें स्वीकार की । कारण "प्रभोः प्रासादचिह्न हि प्राभृतादानमादिमम् ।" [स्त्रामीका अपने नौकरकी भेट स्वीकार करना, स्वामीकी प्रसन्नताका प्रथम चिह्न है। फिर जैसे क्यारी में पौधा रोपा जाता है वैसेही प्रभासेश्वरको वहाँ स्थापित कर वह शत्रुनाशक नपति अपनी छावनी में पाया। कल्पवृक्षकी तरह गृहीरत्नके द्वारा तत्कालही तैयार किए गए भोजनसे उसने अहमका पारणा किया। फिर प्रभासदेवका अष्टाहिका उत्सव किया । कारण, "आदी सामंतमात्रस्याप्युचिताः प्रतिपत्तयः ।" [भारंभमें अपने सामंतका भी आदर करना उचित है। . (१९५-२१४) • जैसे दीपकके पीछे प्रकाश चलता है वैसेही, चक्रके पीछे चलते हुए चक्रवर्ती, समुद्र के दक्षिण तटके नजदीक सिंधु नदीके किनारं आ पहुँचा। उसके किनारे किनारे पूर्वक्री तरफ चलकर . सिंधुदेवीके सदनके पास उसने छावनी डाली । वहाँ उसने अपने मनमें सिंधुदेवीका स्मरण करके अट्टम तप किया। इससे
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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