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________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत [२६७ - छावनी डाली । किनारेकी भूमि सुपारी, तांबूल और नारियलके पेड़ोंसे भरी हुई थी। वहाँ प्रभासपतिके उद्देश्यसे भरतने अष्टम भक्तका(तीन उपवासका तप किया और पहलेहीकी तरह पौषधालयमें पौपध लेकर बैठ।पौपधके अंतमें मानो दूसरा वरुण हो ऐसे चक्रीने रथमें बैठकर समुद्र में प्रवेश किया। रथको पहियोंकी धुरी तक जलमें लेजाकर खड़ा किया और धनुपपर चिल्ला चढ़ाया। फिर जयलक्ष्मीके लिए क्रीडा करनेकी बीणारूप धनुपकी लकड़ीकी, तंत्रीके समान प्रत्यंचाको ( चिलेको ) अपने हाथसे उच्च स्वरमें शब्दायमान किया ( बजाया) । सागरके किनारे खड़े हुए उनके वृक्षके समान भाथेमेंसे वाण निकाल, उसे धनुपके आसनपर इस तरह रखा जैसे आसनपर अतिथिको बिठाते हैं। सूर्यविमेंसे खींचकर निकाली हुई किरणकी तरह बाणको प्रभासदेवकी तरफ चलाया। वायुके समान वेगसे बारह योजन समुद्रको लाँघ, माकाशको प्रकाशित करता हुआ वह बाण प्रभासपतिकीसभामें जाकर गिरा। बाणको देखकर प्रभासेश्वर नाराज हुआ; मगर उसपर लिखे हुए अक्षरोंको पढ़कर वह दूसरे रसको प्रकट करनेवाले नटकी तरह, तुरंत शांत हो गया। फिर वाण और दूसरी भेटें लेकर प्रभासपति-चक्रवर्ती के पास आया और नमस्कार करके इस तरह कहने लगा, "हे देव ! आप, स्वामीके द्वारा भासित (प्रकाशित) किया गया मैं आजही वास्तविकरूपसे प्रभास (पाया हूँ प्रकाशित हुआ हूँ) कारण, कमल सूर्यको किरणोंहीसे कमल' होता १-कंजलं; अलन्ति भूपयति : दांतं कमलानि । जलको जो सुशोभित करता है, उसे कमल करते हैं। .
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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