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________________ ___ २६२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३. . पीछे मूर्तिमान लक्ष्मी हो वैसे सोने, रत्नों और माणिकके आभूषणवाले घोड़े, हाथी, रथ और पैदल ले भरत महारान रवाना हुए । अपने आभूषणोंकी कांतिसे जंगम (चलते-फिरते) तोरणकी रचना करनेवाली सेना सहित चलते हुए भरत महाराजने दूरसे ऊपरका रत्नमय गढ़ देखा और मरुदेवी मातासे कहा, "हे देवी! वह देखिए देवियों और देवताओंने प्रभुके समवसरणकी रचना की है। पिताजी चरणकमलकी सेवासे आनंदित देवताओंका वह लय-जयकारशब्द सुनिए। हे माता! मानो प्रभुका बंदी (माट) हो वैस गंभीर और मधुर शब्दों से आकशमें बजता हुआ दुंदुमि आनंद उत्पन्न करता है। स्वामीके चरणों में बंदना करनेवाले देवताओंके विमानोंमें होती हुई धुंघनोंकी आवाज हम सुन रहे हैं। स्वामी के दर्शनोंसे हर्षित हुए देवताओंका, मेघकी गर्जनाके समान यह सिंहनाद आकाशमें हो रहा है । ताल, स्वर और राग सहित (प्रमुगुणोंसे) पवित्र बनी हुई गंधत्रोंकी गीति प्रभुकी वाणीको दासी हो वैसे हमको आनंद देनी है।" (५३०-५२७) . भरतकी बातों से उत्पन्न हुए, आनंदाश्रुनोंसे मन्देवीमाता की आँखोंके नाले इसी तरह कट गए जिस तरह पानी के प्रवाहसे कोचढ़ घुल जाता है। इससे उन्होंने अपने पुत्रकी अतिशयसहित तीर्थंकरपनकी लक्ष्मी निजाँखाले देखी। उसके दर्शनसे उपजे हुए आनंदमें, मन्देवीमाता, लीन हो गई। तत्कालद्दी समकालमें अपूर्वकरणके क्रमसे आपकोणीमें आनद हो, आठ कमाको क्षीण कर, मनदेवी माताने केवलज्ञान पाया, और (इसी समय श्रायुके पूर्ण होनेसे) अंतकृतवली हो, हाथीपर बट बैठे ही
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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