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________________ भ० ऋपभनाथका वृत्तांत २५१ करता हो ऐसा मालूम होता था। उसके गंडस्थलमेंसे झरते हुए अति सुगंधित मदजलसे वह स्वर्गके आँगनकी भूमिको कस्तूरीके समूहसे अंकित करता था। उसके दोनों कान पंखोंकी तरह हिल रहे थे; ऐसा मालूम होता था कि उसके कपोल-तलसे मरते हुए मदकी सुगंधसे अंध बने हुए भौरोंके समूहको वह उड़ा रहा था। अपने कुंभस्थलके तेजसे उसने बालसूर्यका पराभव किया था । ( यानी वालसूर्य उसके तेजके सामने मंद लगता था।) और क्रमशः गोलाकार और पुष्ट सूंडसे वह नागराजका अनुसरण करता था। (नागराज जैसा लगता था ।) उसके नेत्र और दाँत मधुके समान कातिवाले थे। उसका तालू ताम्रपत्र (तांबेकी चहर ) के समान था। उसकी गरदन भंभा (डुग्गी) के समान गोल और सुंदर थी । शरीरके बीचका भाग विशाल था। उसकी पीठ डोरी चढ़ाए हुए धनुपके जैसी थी। उसका उदर कृश था। :: वह चंद्रमंडलके समान नखमंडलसे मंडित ( शोभता) था। उसका निःश्वास दीर्घ और सुगंधित था। उसकी करांगुली (लँडका अगला भाग) दीर्घ और चलित ( हिलती हुई.) थी। उसके होठ, गुह्य-इंद्री और पूंछ बहुत बड़े थे। दोनों तरफ रहे हुए सूरज और चाँदसे, जैसे मेरु पर्वत अंकित होता है वैसेही, दोनों तरफ लटकते हुए दो घंटोंसे वह अंकित था। उसकी दोनों तरफकी डोरियाँ देववृक्षके फूलोंसे गुंथी हुई थीं। मानों आठों दिशाओंकी लक्ष्मियोंकी विभ्रम-भूमियाँ (हिरनेफिरनेके स्थान ) हो वैसे सोनेके पत्रोंसे सजाए हुए आठ ललाटों और पाठ मुखोंसे वह शोभता था.। मानों बड़े पर्वतोंके
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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