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________________ २४२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग ३, इच्छा रखते हैं वे स्नान, उबटन, श्राभूषण और वस्त्र स्वीकार करते हैं। मगर विरक्त वने हुए प्रभुको उन चीजोंकी क्या जरूरत हो सकती है ? जो कामके वशमें होते हैं वे कन्याओंको स्वीकार करते हैं, मगर कामको जीतनेवाले स्वामी के लिए तो कामिनियाँ पूर्णतया पापाणके समान हैं। जिनको पृश्वीकी चाह हो वे हाथी, घोड़े वगैरा स्वीकार करें; संयमरूपी साम्राज्यको प्रहण करनेवाले प्रमुके लिए तो ये सब चीजें जले हुए कपड़ेके समान है। जो हिंसक होते हैं वे सजीव फलादि ग्रहण करते हैं। मगर ये दयालु प्रभु तो सभी जीवोंको अभय देनेवाले हैं। ये तो सिर्फ एषणीय (निर्दोष ), कल्पनीय (विधिके अनुसार ग्रहण करने योग्य ) और प्राशुक (शुद्ध) आहारही ग्रहण करते है। मगर इन बातोंको, आप अजान लोग नहीं जानते हैं।" - - . (३११-३१७) उन्होंने कहा, "हे युवराज ! ये शिल्पादि जो श्राज चल रहे हैं, इनका ज्ञान पहले प्रभुने कराया था। इसी लिए सब लोग जानते हैं, मगर तुम जो बात कहते हो वह बात तो पहले प्रभु. ने हमें कभी नहीं बताई । इसलिए हम कोई नहीं जानते । आपने यह बात कैसे जानी ? अाप इसे बता सकते हैं, इसलिए कृपा करके कहिए।" (३१८-३१६) .. युवराजने बताया, "ग्रंथ पढ़नेसे जैसे बुद्धि उत्पन्न होती है वैसे ही प्रभुक्के दर्शनसे मुझे लातिस्मरण ज्ञान हुआ। सेवक जैसे एक गाँवसे दुसरं गाँव (अपने स्वामीके साथ) जाता है वैसेही, मैं आठ भव तक प्रभुके साथ फिरा हूँ । इस भवसे पहले वीते हुए तीसरे जन्ममें, विदेह भूमिमें प्रभुके पिता वयसेन नामक
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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