SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२.] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. ही नारकी जीवोंको भी क्षणमात्रके लिए सुख हुआ। उसी समय मानों दीक्षाके साय संकेत कर रखा हो वैसे, मनुष्यक्षेत्रके सभी पंचेंद्रिय जीवोंकी वातको जाननेवाला मनापर्ययज्ञान प्रभुको उत्पन्न हुआ। कच्छ और महाकच्छ वगैरा चारहतार राजाओंने भी प्रभुके साथही दीक्षा लेली। मित्रोंने उन्हें रोका, वंधुओंने उनको मना किया, भरतेश्वरने वारम्वार निपेय क्रिया तो भी, उन्होंने अपने बी-पुत्र-राज्य वगैरा सबका, तिनकेकी तरह त्याग कर, अपने स्वामीकी कृपाओंको याद कर, भौरोंकी तरह प्रभुके चरण कमलोंका विरह अपने लिए असह्य (सहन न हो सके ऐसा ) समझ कर, और जो स्वामीकी गति है वही हमारी भी है यह निश्चय कर,आनंदसे चारित्र ग्रहण कर लिया। ठीकही कहा है कि , "...""भृत्यानामेष हि क्रमः ।" . [नौकरोंका यही क्रम है, यानी सच्चे नौकर हर हालतमें अपने मालिक का साथ देते हैं।] (६५-८०) - फिर इंद्रादि देव वंदना कर, हाथ जोड़, प्रमुकी न्तुति करने लगे, "हे प्रभो! हम आपके यथार्थ गुणोंका वर्णन करनेमें असमर्थ है, तो भी स्तुति करने लगे हैं। कारण आपके प्रभावसे हमारी वृद्धिका विकास होता है-हमारी अक्ल बढ़ती है। हे स्वामी ! बस और स्यावर जीवोंकी हिंसाको छोड़नेसे, अभयदान देनेवाली दानशालाके समान बने हुए, आपको हम नमस्कार करते हैं। झूठको बिलकुल छोड़ देनसे, निर्मल व हितकारी, सत्य और प्रिय वचनरूपी सुधारसके समुद्र के जैसे आपको हम
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy