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________________ सागर चंद्रका वृत्तांत [१६५ - विचित्र प्रकारके नाच करने लगे; कई ऐसे गायन गाने लगे मानों उनकी जाति गंधर्वही है; कई अपने मुँहसे ऐसे शन्न करने लगे मानों उनके मुख बाजेही हों; कई बड़ी चपलतासे बंदरोंकी तरह कूदने लगे; कई वैहासिकों ( विदूषकों) की तरह सबको हँसाने लगे और कई प्रतिहारों (छड़ीदारों) की तरह लोगोंको दूर हटाने लगे। इस तरह हर्षोन्मत्त होकर जिनके सामने भक्ति प्रकट की है ऐसे, और जो, दोनों तरफ बैठी हुई सुमंगला और सुनदासे शोभित हो रहे हैं ऐसे, श्री आदिनाथ प्रभु दिव्य वाहनमें सवार होकर अपने स्थानपर गए । (८७३-७६) इस तरह विवाह-महोत्सव समाप्त कर इंद्र ऐसे अपने देवलोकको गया जैसे रंगाचार्य नाट्यगृहका काम पूरा कर अपने घर जाता है। तभीसे स्वामीने विवाहकी जो विधि बताई है वह लोगों में प्रचलित हुई। कारण ".... परार्थाय महतां हि प्रवृत्तयः ।" [महान पुरुपोंकी प्रवृत्तियाँ दूसरोंकी भलाईके लिए ही होती हैं।] (८८०-८८१) अव अनासक्त होते हुए भी प्रभु दोनों पत्नियोंके साथ दिन बिताने लगे। कारण, पहले सातावेदनीयकर्मका जो बंधन हुआ था यह भोगे बिना क्षय नहीं हो सकता था। विवाहके बाद प्रभुने छःलाख पूर्वसे कुछ कम समय तक दोनों पत्नि. योंके साथ सुख-भोग भोगे। (८८२-८८३) - उस समय वाहु और पीठके जीव सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्यवकर सुमंगलाकी फुतिसे युग्मरूपमें उत्पन्न हुए; और सुबाहु
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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