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________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [१८३ उन्होंने उसका नाम सुनंदा रखा । कुछ दिनोंके बाद सुनंदाके मातापिता मर गए । कारण संतान पैदा होने के बाद युगलियोंकी जोड़ी थोड़े दिनही जीवित रहती है। अकेली रह जानेपर क्या करना चाहिए सो उसे नहीं सूझता था और वह यूथभ्रष्टा मृगीकी तरह (अपने समूहसे विछुड़ी हुई हरिणीकी तरह ) वनमें अकेली भटकने लगी। सरल अँगुलीरूपी पत्रवाले चरणोंसे जमीनपर कदम रखती हुई वह, मानों पृथ्वीपर खिले हुए कमल स्थापित कर रही हो ऐसी मालूम होती थी। उसकी दोनों जाँघे कामदेवके बनाए हुए सोनेके भाथोंसी (तरकस)जान पड़ती थीं। क्रमसे विशाल और गोल पिंडलियाँ हाथीकी सूंडसी मालूम होती थीं। चलते समय उसके पुष्ट और भारी नितंब (चूतड़) कामदेवरूपी जुआरीकी सोनेकी फैकी हुई गोटसे दिखते थे। मुट्ठीमें आजाए ऐसी और कामदेवके आकर्पणके समान कमरसे और कामदेवकी क्रीड़ावापिका (खेलनेकी बावड़ी) के समान नाभिसे वह बहुत शोभती थी। उसके पेटमें त्रिवलि रूपी तरंगें थीं, उनसे वह अपने रूपद्वारा तीनलोकको जीतनेसे, तीन जयरेखाओंको धारण करती हो ऐसी मालूम होती थी । उसके 'स्तन कामदेवके क्रीड़ापर्वतोंके समान दिखते थे । उसकी भुजलताएँ (हाथ) रतिपतिके झूलेकी दो यष्टियों (डोरियों) सी जान पड़ती थीं । उसका तीन रेखाओंवाला कंठ शंखकी शोभाको हरता था । उसके होठोंसे वह पके हुए विवफलकी कांतिका पराभव करती थी(हराती थी) और होठरूपी सीपके अंदर रहेहुए मुक्ताफलरूपी दाँतोंसे और नेत्ररूपी कमलकी नालकीसी नासिकासे . वह बहुत अधिक सुंदर मालूम होती थी। उसके दोनों गाल मानों
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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