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________________ २५२ त्रिषष्टि शालाका पुरुष-चरित्रः पर्य १. सर्ग २. तरफ रहते थे तो भी प्रभुके मनमें अमिमान जरासा भी न था। वे यथासुख विहार करते थे (खेलतं कूदते थे)। कई बार प्रमु इंद्रकी गोदमें पैर रखें, चमरेंद्रके गोदरूपी पलंगपर, अपने शरीरके ऊपरी भागको स्थिर किये और देवताओंद्वारा लाएहए श्रासनपर विराजमान हो, दोनों हाथों में हस्ताई (तौलिए) लिए हाजिरी में खड़ी हुई अप्सराओं द्वारा से विन, अनासक्त भावसे दिव्य नृत्य-गीत देखते-मुनते थे । (७३०-७३४) एक दिन एक युगलियोंकी जोड़ी ताइवृक्षके नीचे बालकोके लायक खेलकूद करती थी। उस समय बहुत मोटा ताड़का फल उस युगलके पुरुपके सरपर पड़ा और काकतालीय न्यायसे, वह पुरुष तत्कालही अकालमृत्युसे पंचत्व पाया (असमयमें मर गया)। ऐसी घटना यह पहलीही बार हुई थी । अस्पकपायों कारण यह युगलिया लड़का मरकर स्वर्गमें गया । कारण "तूलमप्यल्पमारत्वादाकाशमनुधावति ।" मह भी बहुत कम वजनवाली होनस श्राकाशमें लाती है। पहले बड़े पत्नी, अपने घोंसलोंकी लकड़ीकी तरह युगलियोंके मृत शरीरको उठाकर समुद्र में डाल देते थे; मगर उस समय यह बात नहीं रही थी; अवसर्पिणीकालका प्रमाव अत्रसपंरा हो रहा था (आगे बढ़ रहा था)। इसलिए यह कलेवर. मुदी वहीं पड़ा रहा। उस जोड़ीमें बालिका थी, वह स्त्रमावसंही मुग्धपनसे मुशोभित होरही थी। अपने साथी लड़के मर जानेसे, विकने के बाद बची हुई चीजकी तरह वह चंचल याखावाली बालिका वहीं बैठी रही। फिर उसके मातापिता उसको वहाँसे उठाकर ले गए और उसका पालन-पोषण करने लगे।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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