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________________ . . मगर चंद्रका वृत्तांत [१७५ ग्रहण किया था, इसलिए इंद्र प्रभुके वंशका नाम इक्ष्वाकु रखकर स्वर्गमें चला गया । (६५४-६५६ ). युगादिनाथका शरीर पसीना, रोग और मलसे रहित सुगंधि व सुंदर आकारवाला था और वह स्वर्णकमलके समान शोभता था। उनके शरीरके मांस और मधिर गायके दूधकी धाराके समान उज्ज्वल और दुर्गधरहित थे। उनके आहारभोजन, नीहार (मलत्याग) की विधि चर्मचक्षु के अगोचर थी। यानी कोई आँखोंसे प्रभुका भोजन करना या मलत्याग करना देख नहीं सकता था। उनकी साँसकी सुगंध खिले हुए कमलके समान थी। ये चारों अतिशय जन्मसेही प्रभुको मिले हुए थे । वचऋपभनाराच संहननवाले प्रभु इस विचारसे धीरेधीरे चलते थे कि कहीं जमीन धंस न जाए। उनकी उम्र छोटी थी, तो भी वे गंभीर और मधुर बोलते थे। कारण, लोकोत्तर पुरुपोंका वचपन उम्रकी दृष्टिसेही होता है। समचतुरस्रसंस्थानवाला प्रभुका शरीर ऐसा शोभता था मानों वह खेलनेकी इच्छा रखनेवाली लक्ष्मीकी स्वर्णमय क्रीड़ावेदिका हो। समान उसके बनकर आए हुए देवकुमारोंके साथ वे उनकी अनुवृत्तिके लिएउनको खुश रखनेके लिए खेलते थे। खेलते समय धूलसे भरे हुए शरीरवाले और घुघरू पहने हुए प्रभु मस्तीमें आए हुए हाथीके चालकके समान शोभते थे। जिसको प्रभु लीलामात्रमें ले सकते थे उसको पानेमें बड़ी ऋद्धिवाला देव भी समर्थ नहीं ... १~-प्रभुके ३४ अतिशय होते हैं, उनमसे ४ तो जन्मके साथही प्राप्त होते है। . . . .. .. . .
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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