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________________ . सागरचंद्रका वृत्तांत [१२१ - - - करे। अथवा यह भी ठीक नहीं है। कारण, मैंने उस स्त्रीकी इच्छा पूरी नहीं की तब मैं क्यों उसके दुःशीलकी बात कहकर तुम्हारे घावपर नमक छिड़कूँ ? इसी तरह के विचार करता जा रहा था कि तुमने मुझे देखा। हे भाई ! यही मेरे दुःखका कारण है।" (८६-६८) . उसकी बातें सागरचंद्रको ऐसी लगीं मानों उसने हालाहलभयंकर जहर पिया हो और वह हवा विनाके समंदरकी तरह स्थिर हो गया। फिर उसने कहा, "स्त्रियों के लिए यही ठीक है। कारण, खारी जमीनके तालमें खारा जलही होता है । हे मित्र ! अब अफसोस न करो; अच्छे कामों में लगो; स्वस्थ होत्रो और उसकी बातें याद मत करो। हे भाई ! वह सचमुचही चाहे जैसी भी हो; परंतु हम मित्रोंके मनमें मलिनता नहीं आनी चाहिए।" (६६-१०२) सरल स्वभाववाले सागरचंद्रकी ऐसी प्रार्थनासे अधम अशोकदत्त खुश हुआ। कारण मायाचारी लोग अपराध करके भी अपनी आत्माकी तारीफ कराते हैं।" ( १०३ ) . उस दिनसे सागरचंद्र प्रियदर्शनासे स्नेहरहित हो, उसके साथ इस तरह रहने लगा जैसे रोगी उँगलीको दुःखी होकर रखा जाता है। कारण, "वंध्याप्युन्मूल्यते नैव लता या लालिता स्वयम् ।" - [खुदने सींची हुई बेल यदि वंध्या होती है-फलफूल नहीं देती है तो भी वह उखाड़कर फैकी नहीं जाती।] (१०४-१०५)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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