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________________ आठवा भव-धनसेठः [६३ प्रतिमाकी पूजा व गुरुकी उपासना-सेवामें तत्पर उन लोगोंने कमकी तरह बहुतसा समय भी खपाया। एकबार उन छहों मित्रोंको संवेग (वैराग्य ) उत्पन्न हुआ। इससे उन्होंने मुनिमहाराजके पास जाकर जन्मवृक्षके फलसमान दीक्षा अंगीकार की। नवगृह जैसे नियत समयतक रहकर एक राशिसे दूसरी राशिपर फिरा करते हैं वैसेही वे गाँव, नगर और वनमें नियत समयतक रहते हुए विहार करने लगे। उपवास, छह और अट्ठम वगैरा तपरूपी खरादसे अपने चरित्ररूपी रत्नको अत्यंत उज्ज्वल करने लगे। आहार देनेवालेको किसी तरहकी पीडा न पहुँचाते हुए, केवल प्राणधारण करनेके लिए ही वे माधुकरी वृत्तिसे पारणेके दिन भिक्षा ग्रहण करते थे। वीर जैसे (शस्त्रोंके) प्रहार सहन करते हैं वैसेही धीरजके साथ भूख, प्यास और गरमो वगैरा परिसह सहन करते थे। मोहराजाके चार सेनांगों के (फौजके अफसरोंके ) समान चार कपायोंको उन्होंने क्षमादिक शस्त्रोंसे जीता। फिर उन्होंने द्रव्यसे और भावसे संलेखना करके कर्मरूपी पर्वतका नाश करनेमें वजके समान अनशननत प्रहण किया। समाधिको धारण करनेवाले उन्होंने पंचपरमेष्ठी. का स्मरण करते हुए अपने शरीरका त्याग किया। कहा है ......... न हि मोहो महात्मनाम् ।" [ महात्मा पुरुषों को मोड़ नहीं होता।] ( --) १- गाफर यानी भारत से पलता पराग प्रहार करता पान गयो तीन पगासागर मानसपके पार A और ना आहार लेने कि यहाको मान लम
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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